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मंगलवार, 4 फ़रवरी 2025

4389...सुप्त संवेगों का जागना

मंगलवारीय अंक में
आपसभी का स्नेहिल अभिवादन।
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बरसभर की टकटकी के बाद
लौटते हैं मौसम
सर्दियों की पहली आहट पर
सिहरते सपने जाग कर चौखट को 
बुहारते हैं पलकों से 
पर रजाई,कंबल से अकबकाया
दुशाले ,अलाव की थामे गर्माहट
समय पहाड़ की
ढलान पर हो खड़ा मानो
चार दिन में मैदानों से
लुढ़कती सर्दी और
इकदिवसीय त्योहार-सा 
पलक झपकते उड़न छू मधुमास,
मनुष्य के मन के मौसम की तरह
प्रतिबिंबित होने लगा है 
प्रकृति का अनमना व्यवहार
शायद...
सृष्टि कूटभाषा में
कर रही हमें सचेत ,
कुछ दे रही संकेत ।

#श्वेता सिन्हा
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आज की रचनाएँ-

आ गयी मनोहर मन भावन यह पावन ऋतु मधुमास की 
गा रहे विहग हुलसित मन से करते बतियाँ मृदु हास की
आया वसंत धीरे-धीरे, हाथों में ले फूलों के बाण
चहुँ ओर महक है फ़ैल रही सुरभित सुमनों की श्वास की !



ग़म हो के खुशी आँखों में आ जाते हैं आँसू 
दुख सुख में मेरे चाहने वाले नहीं जाते 
ये वक़्त फक्त पाँव के छालों का हैं मरहम 
पड़ जाते हैं जो दिल में वो छाले नहीं जाते



वसंत
उमंग है, उल्लास है, 
उत्कंठा है
हृदय में निहित
सुप्त संवेगों का जागना है
अंगड़ाई ले कर



“बदले में हमें क्या चाहिए वह बताने के पहले आपको एक उदाहरण देता हूँ- मैं कुछ दिनों पहले विदेश गया था। वहाँ मेरे एक परिचित ने मुझे एक चर्च में में घुमाया। चर्च में मुफ़्त में संस्कारशाला चलाने की अनुमति मिली हुई थी। अधिकांश बच्चे विदेशों में पल रहे हैं। दादा-दादी, नाना-नानी की भी मजबूरी हो गई है विदेशों में रहना। वे लोग अपनी अगली पीढ़ियों को अपनी संस्कृति से जोड़े रखने के लिए एकत्रित होते हैं।


 ये मन वृहद् से वृहद्तम रूप लिए सब कुछ अपने में समेटकर करता रहता है मनमानी । वहीं इसके विपरीत कभी ये पलभर में सिकुड़कर या सिमटकर अत्यंत सूक्ष्म रूप में छिपकर बैठ जाता है तन के भीतर ही कहीं !
इसके बैठते भी तो फिर वही निरा व बेबस हो जाता है तन क्योंकि ये वृहद रूप में जितना प्रभावशाली है उतना ही सूक्ष्म रूप में भी ।

★★★★★★★

आप सभी का आभार;
आज के लिए इतना ही 
मिलते हैं अगले अंक में।

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