आपसभी का स्नेहिल अभिवादन।
सोचती हूँ...
बदलते तारीखों ने बहुत कुछ दिया है
खुशियों के वो पल,
जो अनमोल यादें बनकर
वक़्त-बेवक्त होंठों पर
मुस्कान बनकर बिखर जाती हैं;
कुछ टीसते दर्द भी,
जो अक्सर तन्हाई में
पलकों को नम कर जाते हैं;
कुछ अपने ऐसे रूठे कि
कभी नहीं आयेंगे वापस
वो खालीपन उनके न होने का
कभी भी नहीं भरेगा
और कुछ ऐसे एहसास
जिसे छू कर
बरसों से सोयी ख़्वाहिशें
ज़िदा हो गयी
इंद्रधनुषी रंगों को समेटे
जीवन के लम्हों में
स्पंदनहीन,निर्विकार सा
वक्त चला जा रहा है अनवरत
रात धीरे-धीरे चलकर
एक नयी सुबह में बदल जायेगी
और खिलखिलायेगी
कैलैंडर की नयी तारीख़ में
नये साल की पहली सुबह। ✍️श्वेता
चीड़ और सनोबर
बर्फ से ढक कर भी
इठला रहे हैं
कहीं-कहीं…,
ब्यूस की टहनियाँ
मुस्कुरा कर हिला रही है
डाली रूपी हाथ
फ़ुर्सत कहाँ हैं खुद पर जमी
बर्फ हटाने की..,
उम्र भी टपक पड़ी
अंत से अजान ऐसी
बेल ज्यों लटक खड़ी
मन प्रसून पर फिर से
आस भ्रमर रीझ गया
और एक साल बीत गया !
इतिहास किसी के प्रति भी दयालु...
हमारी अच्छी या बुरी जो भी कह लें परंपरा रही है कि किसी के निधन के बाद उसकी बुराई नहीं करनी चाहिए, पर इतिहास तो नहीं ना मानता ऐसी भावनात्मक बातों को ! यदि वह भी ऐसा करता तो रावण, कंस, चंगेज, स्टालिन, हिटलर जैसे लोगों पर गढ़ी हुई अच्छाईयों की कहानियां ही हम सुन रहे होते ! पर इतिहास तो इतिहास है ! इस मामले में वह निस्पृह होने के साथ-साथ निर्मम भी बहुत है ! ऐसे में अपने कर्मों को जानते हुए भी यदि कोई कहे कि इतिहास उसके प्रति दयालु होगा या दयालुता बरतेगा, तो यह तो उसकी नासमझी ही होगी !
मिलते हैं अगले अंक में।