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गुरुवार, 19 दिसंबर 2024

4342...नर्म सी छुअन, गर्म से एहसास...

शीर्षक पंक्ति: आदरणीय पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा  जी की रचना से।

सादर अभिवादन।

गुरुवारीय अंक लेकर हाज़िर हूँ। आइए पढ़ते हैं आज की पसंदीदा रचनाएँ-

अमीरों की बजाई धुन पर गरीबों को नाचना पड़ता है

यदि धनवान को काँटा चुभे तो सारे शहर को खबर होती है।
निर्धन को साँप भी काटे तो भी कोई खबर नहीं पहुँचती है ।।

अक्सर गरीब की जवानी और पौष की चांदनी बेकार जाती है ।
गर आसमान से बला उतरी तो वह गरीब के ही घर घुसती है ।।

*****

अंदरुनी जयचंद--

आज
भी वही प्रथा
है जीवित
वही
क़त्ल ओर ग़ारत, आगज़नी, नारियों
पर अमानवीय अत्याचार, सामूहिक
रक्त पिपासा, वही पैशाचिक
वीभत्स अवतार, फिर भी
सीने पर शान्तिदूत का
तमगा लगाए फिरते

हैं,

*****

अजनबी

गुज़र रही, कंपकपाती पवन,

सिहर उठी, ठिठुरती हरेक कण,

कह गई, बात क्या इक नई!


छू गई अंतस्थ, मर्म जज्बात,

नर्म सी छुअन, गर्म से एहसास,

चुभन इक, जागी फिर नई!

*****

एक बार फिर

जो उधार है हम पर

जिसकी लौ तुमने ही तो लगायी थी

हर बात से खुद को झाड़ कर

कोई एक इस तरह

कैसे अलग कर सकता है ख़ुद को

जैसे किसी बच्चे ने

अपने कपड़ों से झाड़ दी हो मिट्टी

और मिटा दिया हो निशान गिरने का

*****

कुछ सामयिक दोहे

कोई भी अपना नहीं दुनिया माया जाल

ख़्वाब कमल के देखता दिनभर सूखा ताल

जिससे मन की बात हो वह ही सबसे दूर

आओ मन फिर से पढ़ें तुलसी, मीरा, सूर

*****

फिर मिलेंगे।

रवीन्द्र सिंह यादव


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