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बुधवार, 4 नवंबर 2020

1935..निर्दयी है बड़ी, सर्द सी ये पवन..

 ।। भोर वंदन ।।


"निर्धन जनता का शोषण है
कह कर आप हँसे
लोकतंत्र का अंतिम क्षण है
कह कर आप हँसे 
सबके सब हैं भ्रष्टाचारी 
कह कर आप हँसे 
चारों ओर बड़ी लाचारी 
कह कर आप हँसे 
कितने आप सुरक्षित होंगे 
मैं सोचने लगा 
सहसा मुझे अकेला पा कर 
फिर से आप हँसे "
रघुवीर सहाय

सहज भाव से सामाजिक जीवन की संपूर्ण सत्य को इंगित करतीं 
इन पंक्तियों के साथ चलिये अब नज़र डालें चुनिंदा लिंकों पर...✍️

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स्त्री की देह से परे
उसकी आँखों में बसा तुम्हारे लिए प्यार
उसके होंठों पे ठहरी तुम्हारे लिए दुआ
उसकी धड्कनों में समाया तुम्हारा नाम 
शायद कभी नहीं ..!! 
क्या कभी जान पाओगे ?
स्त्री की 
निर्दयी है बड़ी, सर्द सी ये पवन?...
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ढ़ँक लूँ, भला कैसे ये घायल सा तन!
ओढूं भला कैसे, कोई आवरण!
दिए बिन, निराकरण!
टटोले बिना, टूटा सा अंतः करण,
ले आए हो, ठिठुरण!
निर्मम, जाने न मर्म....
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बाह्य जगत है आलोकमय, अंतरिक्ष
से उतर आए हैं असंख्य नक्षत्र,
लेकिन अंदर का सुरंग है
यथावत आलोक -
विहीन, सब
दौड़
चले हैं स्वर्ण मृग के पीछे, मायावी - -
रात उनके पीछे, दूर तक नहीं
कोई लक्ष्मण रेखा, सघन
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मुझे शुरू से ही ख़ामोशियों से बड़ा लगाव था और तुम्हें चुप्पियों से सख़्त नफ़रत थी।
 हमारे बीच हर बार हुई घंटों लंबी बातचीत में सबसे ज्यादा योगदान तुम्हारा ही हुआ करता था। 
माँ-बाबा से मिली डाँट, भाई से हुई नोक-झोंक और टीचर से मिली शाबाशी से लेकर 
सहेलियों के साथ हुई कानाफूसी तक कुछ भी ऐसा नहीं बचा जो तुमने मुझे नही बताया हो। 
मुझे तुम्हे सुनना हमेशा...
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कहने को कोई बात नहीं है

पर है भण्डार विचारों का

जिन्हें एक घट में किया संचित

कब गगरी छलक जाए..

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।। इति शम ।।
धन्यवाद
पम्मी सिंह 'तृप्ति'...✍️

5 टिप्‍पणियां:

  1. सुन्दर रचनाएँ..
    पर्व की शुभकामनाएँ..
    आभार..
    सादर..

    जवाब देंहटाएं
  2. विस्मित हूँ मै! मेरी ही रचना से चुनी गई पंक्ति "ढ़ँक लूँ, भला कैसे ये घायल सा तन..." के चयन से शीर्षक निर्माण हेतु आभार।
    आभार पटल------
    शुभ प्रभात व शुभकामनाएँ

    जवाब देंहटाएं
  3. सुन्दर रचनाएँ..
    मेरी रचना "तिल" हेतु आभार।

    जवाब देंहटाएं
  4. सभी रचनाएँ बहुत सुन्दर हैं प्रस्तुति भी अनुपम - - मुझे शामिल करने हेतु आभार - - नमन सह।

    जवाब देंहटाएं

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