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रविवार, 29 अक्तूबर 2017

835....भाई रवीन्द्र जी बताइए न ..ऐसा क्यों होता है

सादर नमस्कार......
आज अंतिम दिन.....
कल उठ जाएँगे देवगण
सोच का विषय....घर पर कोई जब सोया रहता है तो...
माता - पिता बच्चों से कहते हैं..शोर मत मचाओ पापा जी उठ जाएँगे
और यहाँ देवगण देव शयनी एकादशी से जो सोते हैं
तो देवोत्थान एकादशी में ही उठते हैं....
इनके शयनकाल में ही सारे तीज त्योहार पड़ते है
जोर-शोर से पूजा-अर्चना की जाती है...
भाई रवीन्द्र जी बताइए न ..ऐसा क्यों होता है
....
श्वेता जी शुक्र को आई... शुक्र है
अच्छा लगा..विविधता के आयाम और बढ़ेंगे
पर तआज़्ज़ुब होता है कि वे सारा ब्लॉगिंग मोबाईल से ही करती हैं
सही है यदि ये..तो काबिले तआरीफ़ है...
शुभकामनाएँ उन्हें.....
......
आज-कल में पढ़ी-सुनी रचनाओं पर नज़र.....



तुम बिन....श्वेता सिन्हा
रात अमावस घुटन भरी,
घनघोर अंधेरा छाया है।
न दीप आस के बुझ जाए,
बाती में नींद ज़रा सी है।



आये   हैं  अमीर-फ़कीर    
हालात     बदलने,
ख़ुशी   केवल   इनकी     
हमनवा    हुई। 
मुश्किल   एक    से        
सवा    हुई।

संतप्त हूँ, 
तुम बिन संसृति से विरक्त हूँ,
पतझड़ में पात बिन, 
मैं डाल सा रिक्त हूँ...
हूँ चकोर, 
छटा चाँदनी सी तुम बिखेरो ना,
प्रिय, कुछ कहो! यूँ चुप तो तुम रहो ना!

दर्द की बेपनाही में अक्सर
दिल चीखकर रोता है बेआवाज़
पथराई नजरों की जुबां भी
हो जाती हैं खामोश जब !
ठीक उसी लम्हे,
फफककर फूटता है आबशार
खामोशियाँ आँसू बहाती हैं !!!

पिता ने बेटी से कहा, अब कुछ समझी? पतीले में ये जो गर्म पानी है उसे मुसीबत समझो। जो झेल गया वो चाय की तरह विजेता बनेगा और नहीं झेल पाया वो गर्म पानी रूपी मुसीबत में अपना सब कुछ खो बैठेगा। जब तक आलू और अंडे का गर्म पानी से पाला नहीं पड़ा था वो खुद को सर्वशक्तिमान समझते थे, लेकिन मुसीबत क्या आई उन्हें अपनी औकात पता चल गई। उन्होंने अपना असली स्वरूप ही खो दिया। हार मान ली और हारता वही है जो संघर्षों से डरता है।


कौन  हूँ मैं ?
आज उम्र के 
इस मोड़ पर आकर भी
ढूँढ रही हूँ 
अपनी पहचान
क्या है मेरा वजूद 
क्या एक नाम ही 
काफी नहीं ?

आज बस इतना काफी है..
आदेश दिग्विजय को
सादर





19 टिप्‍पणियां:

  1. सभी लिंक एक से बढ़कर एक । मेरी रचना को शामिल करने के लिए आभार

    जवाब देंहटाएं
  2. बेहतरीन संकलन
    उम्दा रचनायें
    बहुत बधाई

    जवाब देंहटाएं
  3. सादर अभिवादन।
    वाह!!!!!
    आदरणीय दिग्विजय भाई जी आपका जवाब नहीं। आज का शीर्षक ही मेरे नाम। मन ख़ुशी से झूम उठा। आज हमारे आदरणीय पाठक भी हतप्रभ होंगे इस शीर्षक को पढ़कर। इसीलिए मैं चाहता हूँ आप अपनी लेखन सक्रियता में थोड़ा-सा इज़ाफ़ा कीजिये क्योंकि आपका लेखन प्रभावोत्पादक है। हार्दिक आभार आपका मुझे ऐसी महत्वपूर्ण जवाबदारी सौंपने के लिए। आज का अंक आपने बड़ी कुशलता से संवारा है। सभी चयनित रचनाकारों को हार्दिक बधाई। आदरणीया श्वेता सिन्हा जी का ज़िक्र प्रेरणादायक है। मेरी रचना को मान देने के लिए सादर आभार।

    भारतीय जीवन दर्शन में एक पद्धयति विकसित की गयी जो जीवन को सारगर्भित बनाते हुए सत्य की ओर बढ़ने का मार्ग प्रशस्त करे और समाज में सद्भावना का निरंतर विकास होता रहे। सामाजिक मूल्य सत्य ,प्रेम ,करुणा ,दया ,त्याग ,परमार्थ ,परहित ,अहिंसा ,भक्ति ,सत्कार ,सेवा ,सहनशीलता ,समर्पण ,सहायता ,सुकर्म आदि अनवरत विकसित होकर समाज का उत्थान करते रहें इसी मंतव्य से वैदिक साहित्य में सनातन धर्म से जुड़े आख्यानों की प्रचुरता है।प्राचीन धार्मिक ग्रंथ वेदों (ऋग्वेद ,यजुर्वेद ,सामवेद ,अथर्ववेद ) में वर्णित ज्ञान और गूढ़ रहस्य को सरलीकृत करने के उद्देश्य से पुराणों की रचना ब्राह्मण विद्वानों ने की जिनमें सृष्टि ,देवी-देवताओं से लेकर राजाओं तक के विवरण व वंशावलियाँ मिलती हैं। अर्थात पुराण एक तरह के विस्तार हैं जिनमें कई उल्लेख विवादस्पद भी हैं और अप्रामाणिक भी।

    भारतीय सामाजिक जीवन में रची-बसी मान्यताओं ,परम्पराओं ने समय-समय पर सार्थक रुप बदले और समाज को उत्कृष्ट आयाम प्रदान किये हैं तथा अपने विराट लचीलेपन ( कर्मकांड, निर्गुण और नास्तिक / साकार-निराकार ) से विश्वभर को प्रभावित किया है इसीलिए भारतीय संस्कृति और सभ्यता की अंतः सलिला सतत बहती आ रही है, दूसरों को अपनी ओर आकर्षित करती आ रही है जिस पर हमें गर्व है।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. चौमासा (चातुर्मास) भारतीय सामाजिक परिवेश में स्थापित शब्द है जिससे जुड़ी मान्यता मूल्यवान है तभी तो जनमानस ने उसे सहर्ष स्वीकार किया है। भारतीय कैलेंडर चैत मास से आरम्भ होता है जिसका चौथा महीना आषाढ़ है। आषाढ़ अर्थात वर्षा ऋतु का आरम्भ। खरीफ फ़सल की जुताई-बुवाई का समय। वर्षाकाल में नदी-नालों में बाढ़ का समय। फ़सल की देखभाल का समय , भोजन के रखरखाव में विशेष सावधानी बरतने का समय , मनुष्य और पशुओं को प्रभावित करने वाली मौसमी बीमारियों का समय ,शरीर की इम्मूनिटी पावर घट जाने का समय, कीड़े-मकोड़ों , सांप-बिच्छू आदि के बढ़ने और बिलों से बाहर आकर विचरण का समय,प्रकृति के पुनः सजने-संवरने का समय, पेड़-पौधों के बढ़ने और पल्लवित होने का समय, जलाऊ ईंधन के गीले-सीले होने का समय ,घातक बैक्टीरिया ,वायरस और फंगस के अत्यधिक बढ़ने का समय, जड़ी-बूटियां आदि एकत्र करने में कठिनाई का समय , सुहानी ऋतु में प्रकृति की सुकुमारता के अवलोकन और आनंद लेने का समय। साफ़-सफ़ाई बरक़रार रखने में दुश्वारियों का समय, सूर्य के अक्सर बादलों में छुपकर धूप धरती तक न पहुँचा पाने का समय,प्रकृति के प्रकोप का समय ,घर-द्वार-परिवार बचाने का समय, आवागमन के लिए दुर्गमता का समय ......... आदि-आदि।

      इसलिए यदि पौराणिक कथाओं में ऐसा कहा गया कि आषाढ़ मास की शुक्लपक्ष एकादशी ( देवशयनी या हरिशयनी एकादशी ) से अगले चार माह अर्थात कार्तिक मास की शुक्लपक्ष एकादशी (देवठान ग्यारस / देवठान एकादशी / प्रबोधिनी एकादशी ) तक देवताओं के अधिपति भगवान विष्णु देवताओं सहित सभी देवता (अग्नि देवता का विशेष महत्त्व ) शयन को चले जाते हैं तो कल्पना कीजिये उन तात्कालिक परिस्थियों में ऐसा कहना ही उपयुक्त रहा होगा क्योंकि इसमें स्वहित न होकर व्यापक सामाजिक हित समाया हुआ है। अपवादों का तो हर जगह बोलबाला रहा है। ईष्ट कभी सोता नहीं है लेकिन सामूहिक रूप से समाज को समझाने का यही तरीका उस वक़्त उपयुक्त रहा होगा। और यदि हम सकारात्मक दृष्टिकोण से सोचें तो आज भी यह विचार बेदम और बेकार नहीं है बस हमें उसके भाव की व्यापकता को आत्मसात करना चाहिए। इन चार महीनों में साधु-संत अक्सर एक ही स्थान पर रूककर धर्म और ज्ञान का प्रचार-प्रसार किया करते थे।
      इसलिए चौमासा में मांगलिक कार्यों ( विवाह, कारोबार आरम्भ करने ,नया निर्माण करने , भोजन सम्बंधी वर्जनाएं आदि ) को वर्जित किये जाने का विचार सनातनी परंपरा में गहराई तक व्याप्त हो गया। पौराणिक कथाओं में एक कथा सतयुगीन राजा मांधाता , ब्रह्मा जी के पुत्र अंगिरा ऋषि और शूद्र की तपस्या से भी जुड़ी हुई मिलती है जोकि तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था में वर्ण-व्यवस्था के प्रभाव को रेखांकित करती है। ईश्वर ने हमें बंधनों और भेदभाव के साथ जन्म नहीं दिया बल्कि कालांतर में स्वर्ग-नरक ,पाप-पुण्य के फेर में जीवन को अनेक वर्जनाओं में बांध दिया गया जोकि ज्ञानी जनों का कार्य है कि वे सामाजिक विकृतियों पर गहन चिंतन - मनन करें और धर्म को मानवीयता के पथ पर अनवरत चलते रहने से भटकने न दें।

      "उठो देव", "बैठो देव" का पवित्र उच्चारण और गन्ना पूजन का सुखमय दृश्य कभी नहीं भूलता ..... सकारात्मक ऊर्जा से भर देती है कल आने वाली तिथि "देवठानी एकादशी"....... सभी को अग्रिम हार्दिक मगंलकामनायें !

      अच्छा चलो भाई जी अब थोड़ा हँस लेते हैं -
      "कैसा रहा आपकी गुगली पर मेरा यह शॉट"......... हाहाहाहा.........

      नोट :एक टिप्पणी 4096 वर्ण (अक्षर ) ही स्वीकारती है अतः बात टुकड़ों में पूरी की है।

      हटाएं
    2. शुभ प्रभात भाई रवीन्द्र जी
      आपने मेरा मान रखा...
      आभार....

      हटाएं
    3. सही जानकारी आदरणीय रवींद्रजी द्वारा....बहुत धन्यवाद ।

      हटाएं
  4. बहुत सुंदर संकलन लाए हैं आदरणीय दिग्विजय अग्रवालजी,सादर आभार मेरी रचना को स्थान देने के लिए।

    जवाब देंहटाएं
  5. बहुत सुंदर संकलन आदरणीय सर जी,सुंदर लिंकों का संयोजन आदरणीय रवींद्र जी ने विस्तृत, ज्ञानवर्द्धक जानआरी उपलब्ध करवायी,अत्यंत सराहनीय है। मेरी रचना को मान देने के लिए अति आभार आपका आदरणीय।
    सभी साथी रचनाकारों को मेरी हार्दिक शुभकामनाएँ।

    जवाब देंहटाएं
  6. उम्दा रचनायें...
    बहुत सुंदर संकलन

    जवाब देंहटाएं
  7. अच्छा चलो भाई जी अब थोड़ा हँस लेते हैं -
    "कैसा रहा आपकी गुगली पर मेरा यह शॉट"......... हाहाहाहा......... बहुत बढियाँ जानकारी।
    सुंदर संकलन।

    जवाब देंहटाएं
  8. बच्चों की तरह इनकी नींद भी गहरी होती है, ढोल-ढमाके बजा उठाना पड़ता है !

    जवाब देंहटाएं
  9. मन हर्षित हुआ ज्ञानिओं का ज्ञान पाकर विशेष रूप से आदरणीय रविंद्र जी का विस्तार पूर्वक चिंतन भरा ज्ञान। धन्यवाद रविंद्र जी। इतना सरल ,सुगम लहज़े में हमें अपनी परम्पराओं से अवगत कराने हेतु धन्यवाद। बहुत अच्छी प्रस्तुति ,अच्छा संकलन सादर।

    जवाब देंहटाएं
  10. बहुत ही सुंदर अंक। सार्थक प्रस्तुतियाँ।

    जवाब देंहटाएं
  11. सुंदर संकलन, रवीन्द्र जी द्वारा दी गयी जानकारी के लिये खास आभार.सभी चयनित रचनाकारों को बधाई.
    सादर

    जवाब देंहटाएं
  12. बहि सुन्दर लिंक संकलन....
    देवठानी एकादशी की जानकारी और महत्व बताने के लिए रविन्द्र जी का बहुत बहुत आभार....

    जवाब देंहटाएं
  13. वाह जीजू
    कमाल है
    इतना भी नहीं जानते आप
    देवताओं की रात चार महीने की होती है
    वो भी बरसात में...
    अच्छी रचनाएँ पढ़वाई आपने
    मेरी तरफ तो देखते भी नहीं आप
    शिकायत करूँगी दीदी से
    आदर सहित

    जवाब देंहटाएं

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