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सोमवार, 11 जुलाई 2016

360..पिस रही कदमों तले इंसानियत

सादर अभिवादन स्वीकार करें

बारिश हो रही है

सारे विश्व के मौसम से
बहुत कुछ हट के
रहता है अपने भारत का मौसम
तीन ऋतुएँ और
इन तीन ऋतुओं की
दो-दो उप ऋतुएँ सिर्फ और सिर्फ

भारत में ही होती है..

चलिए..बाते तो होती रहेंगी..लीजिए आज की रचनाओं का ज़ायजा



मत करो न साधना घायल मेरी....शैल सिंह
जलती सांसों पर बोल गीतों के
सुमधुर स्वर ताल में कैसे लाऊँ
ऊषा बदली बदले सभी सितारे 
उलझे हालात मैं कैसे सुलझाऊँ 


सर चढ़ कर जब बोलता है !
तो बंद आँखों में तैरने लगते हैं
कविताओं के खिलखिलाते शव्द
बेशक लिख न पाऊं कविता !!



ये कैसा बंधन जिसमे तुम
मदमाती सुवास बन आती हो
शिराओं में स्थान बनाकर 
हर स्पन्दन संग बहती जाती हो
मेरे ही मुस्कानों में मुस्काती हो
और सम्मुख होने से लजाती हो




आग बरसाता सूरज हो
चांदनी रात की शीतलता
कुछ भी तो नहीं ठहरता
सदा -सदा के लिए
केंचुल से भी तो हो जाएगी बाहर सर्पीली यादें
हवा में बेजान खाली केंचुल भी        
यादों पर बेमानी है।

ये है आज की शीर्षक रचना


ख़ुशबुओं के बंद सब बाज़ार हैं
बिक रहे चहुं ओर केवल खार हैं 

पिस रही कदमों तले इंसानियत 
शीर्ष सजते पाशविक व्यवहार हैं 
......

आज्ञा दें यशोदा को..
फिर मुलाकात होगी..





6 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति यशोदा जी ।

    जवाब देंहटाएं
  2. बहुत अच्छी हलचल प्रस्तुति हेतु धन्यवाद!

    जवाब देंहटाएं
  3. सुन्दर व सार्थक रचना प्रस्तुतिकरण के लिए आभार!

    मेरे ब्लॉग की नई पोस्ट पर आपका स्वागत है...

    जवाब देंहटाएं
  4. आपके द्वारा चयनित लिंक
    उत्तम है...
    पसंदीदा रचनाओ के रचनाकार
    मुझे लगता है ...
    पाठकों के लिए नहीं
    आत्मसंतुष्टि के लिए
    ही लिखते हैँ
    है तो कड़ी बात
    पर सही है
    सादर

    जवाब देंहटाएं
  5. प्यारे लिंक्स
    खुद को पाकर अभिभूत हूँ

    जवाब देंहटाएं

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