समर्थ गुरु रामदास छत्रपति शिवाजी के गुरु थे। वह भिक्षाटन से मिले अन्न से अपना भोजन करते थे। एक बार उन्होंने शिवाजी के महल के द्वार के बाहर से भिक्षा मांगी।
शिवाजी गुरु की आवाज पहचानकर दौड़े-दौड़े बाहर आए और बोले, यह क्या करते हैं महाराज, आप हमारे गुरु हैं। भिक्षा मांगकर आप हमें लज्जित कर रहे हैं।
रामदास ने कहा, शिवा! आज मैं गुरु के रूप में नहीं, भिक्षुक के नाते यहां आया हूं। शिवाजी ने एक कागज पर कुछ लिखकर गुरु के कमंडल में डाल दिया। गुरु ने उसे
पढ़ा। लिखा था, 'सारा राज्य गुरुदेव को अर्पित है।' उन्होंने कागज को फाड़कर फेंक दिया और वापस जाने लगे। शिवाजी ने कहा, गुरुदेव, क्या मुझसे कोई भूल हुई है जो आप जा रहे हैं? गुरुदेव ने कहा, भूल तुमसे नहीं, मुझसे हुई है। मैं तुम्हारा गुरु होकर भी तुम्हें समझ
नहीं पाया और न ही मैं तुम्हारे अंदर से तुम्हारे अहंकार को निकाल पाया। तुम राजा नहीं, एक सेवक हो। शिवाजी ने कहा, मैं तो तन-मन-धन से जनता की सेवा करता हूं। अपने को राजा समझता ही नहीं। गुरु रामदास ने कहा, शिवा, जो चीज तुम्हारी है ही नहीं, उसे तुम मुझे
दे रहे हो, यह अहंकार नहीं तो और क्या है? मैं राज्य लेकर क्या करूंगा? मुझे तो दो मुट्ठी दाना ही काफी है। यह राज पाट, धन दौलत सब जनता की मेहनत का फल है।
इस पर सबसे पहले उसका अधिकार है। तुम बस एक समर्थ सेवक हो। एक सेवक को दूसरे सेवक की चीज को दान देना राजधर्म नहीं है। उसकी रक्षा करना ही तुम्हारा धर्म है।'
शिवाजी पसोपेश में पड़ गए। उनकी कसमसाहट को समझकर गुरुदेव ने कहा, वत्स! यदि शिष्य गुरु के वचनों को अंगीकार करके प्रायश्चित करके अपने को सुधार ले तो वह प्रिय
शिष्य कहलाता है। शिवाजी गुरुदेव की भावना समझ गए।
अब पेश है....आज की कड़ियां....
तुम मिलोगे तो ही,पर जमीं पर नहीं
वैसे हंसकर कहें, यदि बुरा न लगे
तुम निछावर हुये हो,हमीं पर नहीं !
इक भरोसा सा है, दौड़ोगे एक दिन
तुम मिलोगे तो ही,पर जमीं पर नहीं
वर्ण पिरामिड
है
भीती
अधीती
जयहिंद
हिम ताज है
तोड़ न सका है
जयचंद संघाती
दोहे
चढ़ा भेंट भगवान को, चाहते कटे पाप
घुस से कुछ होता नहीं, कटौती नहीं पाप
कर्म फल भुगतना यहीं, जानो यही विधान
क्षमा माँग सजदा करो, निष्फल होता दान
मैं स्त्री
मैं स्त्री
कृष्ण बनने की कला जानती हूँ
अपने अंदर गणपति का आह्वान करके
अपनी परिक्रमा करती हूँ
मैं स्त्री,
धरती में समाहित अस्तित्व
जिसके बगैर कोई अस्तित्व नहीं
न प्राकृतिक
न सामाजिक
और मेरे आँसू
भागीरथी प्रयास ...
लिखने के लिए बाज़ुओं में ताक़त चाहिए और जिगर भी..
बंदूक थामी है तुमने
तो जरूर तुम्हारे बाजुओं में
ताक़त होगी और जिगर भी,
फिर क्यों बन्दूक हाथ में ले रखी है तुमने
कलम ही काफ़ी है इनके लिए
जिनसे तुम लड़ रहे हो।
समंदरों की सियासत ...
हरेक दरिय : को प्यारी है अपनी आज़ादी
समंदरों की सियासत किसी को क्या मालूम
अभी-अभी तो कहन में निखार आया है
अभी हमारी मुहब्बत किसी को क्या मालूम
बकरोटा पहाड़ : डलहौजी का सौंदर्य
ढलती शाम में अमित्युश
उग आई रौशनी पहाड़ों पर
क्रमश.....
धन्यवाद
शुभ प्रभात..
जवाब देंहटाएंचुरा लिया है तुमने जो दिल को
बेहतरीन प्रस्तुति
सादर
शुभ प्रभात
जवाब देंहटाएंसस्नेहाशीष पुतर जी
उम्दा प्रस्तुतिकरण हमेशा की तरह
आभार आपका
सुन्दर शुक्रवारीय प्रस्तुति ।
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया हलचल प्रस्तुति हेतु अाभार !
जवाब देंहटाएंBahut sundar prastuti..meri rachna shamil karne ke liye aabhar
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