कुछ चुने हुए लिनक्स के साथ....!
मैं भूंखा हू
अए रोटी तुम कहाँ हो ?
कब से नहीं देखा तुम्हें साबूत
बस टुकड़ों मे ही दिखाई देती हो
अनुभूतियों का आकाश .............महेश कुशवंश
उस बाग को खुदवाकर मैंनें
धंस दिया था गहरे तक
ईंट का चूरा
और फिरवाकर रोलर
कई मर्तबा
बना दिया था सपाट, बंजर
उस जमीं को..
जहाँ खिला करती थीं
बेचैनियों का गुलदस्ता .................. अंकुर जैन
ज़िंदगी कुछ ख़फ़ा सी लगती है,
रोज़ देती सजा सी लगती है।
रौनकें सुबह की हैं कुछ फीकी,
शाम भी बेमज़ा सी लगती है।
कशिश माय पोएट्री ...............कैलाश शर्मा
उधर से चिलमन सरकता दिखाई देता है
इधर नशेमन फिसलता दिखाई देता है
तुझे पता क्या तेरे फैसले की कीमत है
मेरा वजूद बदलता दिखाई देता है
प्रेम रस ..............शाह नवाज़
मुद्दत हुई कि बैठे हैं बस इंतज़ार में,
काटीं हैं सुबहें,रातें कितनी,इंतज़ार में।
करके गये थे वादा,जल्द लौट आयेंगे,
अब भी सहन में बैठे हैं हम इंतज़ार में।
ये कुछ ही दिन फुरकत के हैं,कहके गये थे,
आयेंगे लेके अच्छे दिन, कुछ इंतज़ार में।
स्वपनरंजिता ...........आशा जोगळेकर
सियार होना
गुनाह नहीं
होता है
कुछ इस तरह
का जैसा ही
कभी सुना या
पढ़ा हुआ कहीं
महसूस होता है
शेर हूँ बताना
गुनाह होता है
उलूक टाइम्स में..... सुशील जोशी
इसी के साथ ही आप सब मुझे इजाजत दीजिए अलविदा शुभकामनाएं फिर मिलेंगे अगले हफ्ते इसी दिन सादर अभिवादन स्वीकार करें
-- संजय भास्कर
शुभ प्रभात
जवाब देंहटाएंआप आ ही गए
देर से मगर दुरुस्त आए
अंतिम लिक मैं जोड़ी हूँ आपकी
इस प्रस्तुति में...
समझ में न आते हुए भी
समझ जाती हूँ सुशील भैय्य़ा की रचना
सादर
सुन्दर प्रस्तुति संजय जी । आभार 'उलूक' के सूत्र 'बताना जरूरी होता है' को आज की चर्चा में जगह देने के लिये ।
जवाब देंहटाएंभाई संजय जी....
जवाब देंहटाएंशुभप्रभात....
सुंदर संकलन....
बहुत अच्छी हलचल प्रस्तुति हेतु धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंधन्यवाद संजय जी , साहियिक भूंख भी होती है कुछ...... आभार
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