सार्वजनिक तौर पर कयासों की देहरी पर
बेवजह टंग गया
और बहस मेरी रूचि न बची थी
सम्पादित करना पड़ा है मुझे
ज़िन्दगी मांगती है भीख
हर रोज़
खुशियों अरमानो सम्बन्धों
पैसो की भी
पर सच में पैसो की किसी को जरूरत है क्या
…..शायद नहीं
ये तो बस माध्यम है बाकी सब पाने का
किसी को पाने का
खुद के टूट जाने का
फरेब और प्यार
विश्वास और घात
इसके कारण नहीं होते
ये तो बस माध्यम ही है
साथ दीखते
धरा और गगन
कभी न मिले |
२-
बनी रहती
सुख -दुःख में दूरी
पट न पाती |
३-
हैं एक साथ
कुम्भ में राजा -रंक
कोई न भेद |
सावन का महीना आकाश काले बादलों से पट गया था, लगता था जल्दी ही बारिश होगी। आजी दलान में से चिल्ला रही थीं- ‘‘अरे!ऽ ऽ ऽ दिपना रे ऽ ऽ ऽ जल्दी चऊअन (जानवरों) के भीतर कर, बुन्नी पड़ले बोलत है।’’ आभा की माँ बाहरी आँगन से जल्दी-जल्दी कपड़े समेट रही थी। दोनों चाची भीतरी आंगन से सामान अन्दर कर रही थीं। आभा अपने छोटे भाई-बहनों के साथ द्वार पर तालियाँ बजा-बजा कर जोर-जोर से चिल्ला रही थी- ‘‘आन्ही पानी आवले, चिरयिया ढ़ोल बजावेले।’’
चदरिया भी अब पुरानी हो गयी
इश्क की पूरी कहानी हो गयी
वाह...
जवाब देंहटाएंबेहतरीन..
सादर..
क्या बात है...
जवाब देंहटाएंचुनकर मोती लाए हैं....
Bahut badhya..
जवाब देंहटाएंवाकई में आनंद आ गया |
जवाब देंहटाएंधन्यवाद वीरम जी मेरी रचना शामिल करने के लिए |
सुन्दर हलचल प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंआभार!
सुन्दर प्रस्तुति वीरम जी ।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर संकलन
जवाब देंहटाएंआभार...
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