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रविवार, 26 जून 2016

345..सोच अब अपनी सयानी हो गयी

 सुप्रभात मित्रो
सादर प्रणाम
आज की प्रस्तुति

  निजता
उसनें एकदिन पूछा
तुम्हें कभी निजता के संपादन की जरूरत महसूस हुई?
मैंने कहा हां एकाध बार
उसने पूछा कब?
मैंने कहा जब कोई ख्याल
सार्वजनिक तौर पर कयासों की देहरी पर
बेवजह टंग गया
और बहस मेरी रूचि न बची थी
उसे बचाने के लिए निजता को
सम्पादित करना पड़ा है मुझे
   
  भीख या माध्यम 
ज़िन्दगी मांगती है भीख
हर रोज़
खुशियों अरमानो सम्बन्धों
पैसो की भी
पर सच में पैसो की किसी को जरूरत है क्या
…..शायद नहीं
ये तो बस माध्यम है बाकी सब पाने का
जीत जाने का हार जाने का
किसी को पाने का
खुद के टूट जाने का
फरेब और प्यार
विश्वास और घात
इसके कारण नहीं होते
ये तो बस माध्यम ही है


  हाईकू (एक प्रयास )
साथ दीखते
धरा और गगन
कभी न मिले |
२-
बनी रहती
सुख -दुःख में दूरी
पट न पाती |
३-
हैं एक साथ
कुम्भ में राजा -रंक
कोई न भेद |
    

  प्रतिशोध
सावन का महीना आकाश काले बादलों से पट गया था, लगता था जल्दी ही बारिश होगी। आजी दलान में से चिल्ला रही थीं- ‘‘अरे!ऽ ऽ ऽ दिपना रे ऽ ऽ ऽ जल्दी चऊअन (जानवरों) के भीतर कर, बुन्नी पड़ले बोलत है।’’ आभा की माँ बाहरी आँगन से जल्दी-जल्दी कपड़े समेट रही थी। दोनों चाची भीतरी आंगन से सामान अन्दर कर रही थीं। आभा अपने छोटे भाई-बहनों के साथ द्वार पर तालियाँ बजा-बजा कर जोर-जोर से चिल्ला रही थी- ‘‘आन्ही पानी आवले, चिरयिया ढ़ोल बजावेले।’’
   

ग़ज़ल "सुर्ख काया जाफरानी हो गयी"
उम्र की अब मेजबानी हो गयी
सुर्ख काया जाफरानी हो गयी
सोच अब अपनी सयानी हो गयी
चदरिया भी अब पुरानी हो गयी
ज़िन्दग़ी की मेहरबानी हो गयी
इश्क की पूरी कहानी हो गयी

अब दीजिए आज्ञा
धन्यवाद
विरम सिंह 

7 टिप्‍पणियां:

  1. क्या बात है...
    चुनकर मोती लाए हैं....

    जवाब देंहटाएं
  2. वाकई में आनंद आ गया |
    धन्यवाद वीरम जी मेरी रचना शामिल करने के लिए |

    जवाब देंहटाएं
  3. बहुत सुंदर संकलन
    आभार...

    http://rajeevranjangiri.blogspot.in/

    जवाब देंहटाएं

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