।।प्रातःवंदन।।।
"चाँदनी बनाई, धूप रची,
भूतल पर व्योम विशाल रचा,
कहते हैं, ऊपर स्वर्ग कहीं,
नीचे कोई पाताल रचा।
दिल - जले देहियों को केवल
लीला कहकर सन्तोष नहीं;
ओ रचनेवाले! बता, हाय!
आखिर क्यों यह जंजाल रचा...?"
बढते है नए चुनिंदा लिंकों के साथ..
दिन अभी ढला नहीं, जिंदगी की शाम बाकी
बादलों का गर्जन, नभ विशाल गूँजा है
दिन ने ओढ़ा तमस, मन जा कहीं उलझा है
खुल रही गांठें अंतस की, एक पूरी एक आधी है
दिन अभी ढला नहीं, जिंदगी की शाम बाकी है
गा-गा कर थक गये सयाने
बुद्धि से तेज गति है जिसकी,
जीवन एक सुगंध की खानि
कानों में आ बोल रहा है
✨️
फटने को तत्पर, प्रकृति के मंजर।
अभी तक मैं इसी मुगालते में जी रहा था
सांसों को पिरोकर जिंदगी मे सीं रहा था,
जो हो रहा पहाड़ो पर, इंद्रदेव का तांडव है,
✨️
हमें तो लूट लिया फोन बनाने वालों ने
टेली कॉल वालों के जी के जंजालों ने
अजब मोबाइल है
गजब सी उस की उल्फ़त है
नजदीकिया है दूरी
दूरियां में क़ुर्बत है
कोई दुखड़ा सुना रहा
अपना व्हाट्सएप पे..
✨️
।।इति शम।।
धन्यवाद
पम्मी सिंह ' तृप्ति '...✍️

"आखिर क्यों यह जंजाल रचा...?" दिनकर जी ने ऐसा भी लिखा था, "काहे को दुनिया बनायी" गीत शायद इसी रचना की प्रेरणा से लिखा गया हो, ख़ैर! दुनिया तो अब बन ही गई है, तो उससे शिकायत कैसी, सुंदर अंक, आभार पम्मी जी!
जवाब देंहटाएंजैसी भी है अपनी है
जवाब देंहटाएंदुनिया भी ज़िन्दगी भी
अभिवादन।