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शुक्रवार, 19 सितंबर 2025

4516...ज़िंदगी अब झर रही है...

शुक्रवारीय अंक में 
आप सभी का हार्दिक अभिनंदन।
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मौन, वार्तालाप से ज्यादा प्रभावी हो शायद
दुःःख समझना,दर्द सुनने पर हावी हो शायद...
पर,बनावटी बाज़ार में भावनाएँ आश्रयहीन 
न निभाना औपचारिकता, अशिष्टता है,
संवेदनशीलता का दिखावा, विशिष्टता है।
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अपने आस-पास की कराह को अनसुना करना,

परिचित,अनजानी दर्द भरी सिसकियों भर निर्विकार रहना

मरघट में बदलती बस्तियों के मध्य अपने किले की सुरक्षा के लिए रात-दिन प्रार्थना करना सामयिक दौर में मृत्यु औपचारिक समाचार है,जीवन की जटिलता समझने का प्रयास व्यर्थ है तटस्थ रहकर,अगर जीना है   बस सकारात्मकता के मंत्र का जाप करना होगा...

सकारात्मक रहो, सकारात्मकता जरूरी है,जीने के लिए आस चाहिए,उम्मीद पर दुनिया कायम है,समय है रूकेगा थोड़ी गुज़र जायेगा।

क्या सचमुच सकारात्मकता की ओर अग्रसर है हम या असंवेदनशीलता के नये युग की ओर बढ़ चुके हैं?



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आइये पढ़ते हैं आज की रचनाएँ-



इक दूजे के पूरक हम बिन तेरे क्या है अस्तित्व मेरा 
रह-रह टीस उठे हिय,कंठ रूद्ध,अश्रु करें श्रृंगार मेरा
अनुराग से सना पढ़ मौन वेदना मेरी छवि बना लेना
नेह से ना करना निर्वासित इस मधुमास में आ जाना ।



अंतरतम का सौंदर्य ही रहता है
शाश्वत, सुंदरता उभरती है
तभी जब हृदय बने
उन्मुक्त देवालय,
मृत्पिंडों से
निर्मित है
देह का
संग्रहालय । 







जो भी साथी हँस रहे हैं
वो भी उतना झर गये हैं
कितने चश्में उनके बदले
याद कुछ ना रह गये हैं
 

करते रहे ठिठोली 
भोर - सांझ ये आते जाते 
होठों पर खुशियाँ दे जाते 
दिन ढलते ही झम - झम करके 
खूब बरसते है ये बादल 
गड़ - गड़ करके झड़ - झड़ करके 
धाराएँ बहती जाती है 



जाना तो है लेकिन वापस छोड़ना यही होगा।" उसकी पहेली जैसी बातों को पत्नी समझ पाती उससे पहले ही सड़क के उस पार पार्किंग एरिया में गाड़ी संग इंतजार करते ड्राइवर को एक हाथ हिला थोड़ा और इंतजार करने का इशारा कर वह पत्नी का हाथ थामें रिक्शे की पिछली सीट पर जा बैठा।"
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आज के लिए इतना ही
मिलते हैं अगले अंक में।
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2 टिप्‍पणियां:

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