।।प्रातःवंदन।।
आलोक दिया हँसकर प्रातः
अस्ताचल पर के दिनकर ने;
जल बरसाया था आज अनल
बरसाने वाले अम्बर ने;
जिसको सुनकर भय-शंका से
भावुक जग उठता काँप यहाँ;
सच कहता-हैं कितने रसमय
संगीत रचे मेरे स्वर ने !
भगवती चरण वर्मा
हर सुबह एक नई शुरुआत ही है...तो बढते है नए लिंको के साथ ✍️
तृषित अधर है लोग किधर हैं
ऐसा क्या जो तितर-बीतर है
मेघा को बरसाओ न
गीत सावनी गाओ न..
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रामवृक्ष बेनीपुरी गेहूँ बनाम गुलाब निबंध
गेहूँ हम खाते हैं, गुलाब सूँघते हैं। एक से शरीर की पुष्टि होती है, दूसरे से मानस तृप्त होता है।
गेहूँ बड़ा या गुलाब? हम क्या चाहते हैं - पुष्ट शरीर या तृप्त मानस? या पुष्ट शरीर पर तृप्त मानस?
जब मानव पृथ्वी पर आया, भूख लेकर। क्षुधा, क्षुधा, पिपासा, पिपासा। क्या खाए, क्या पिए? माँ के स्तनों को निचोड़ा, वृक्षों को झकझोरा, कीट-पतंग, पशु-पक्षी - कुछ न छुट पाए उससे..
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वह बहती थी—
शांत, धैर्य से भरी,
जैसे नियति ने पहले ही
उसके प्रवाह में अपना नाम लिख दिया हो।
तटों को लाँघती नदी
मानो समय के कगार पर उकेरा गया प्रश्न हो,
फ़टे बादलों की लकीरों पर टँगा एक उत्तरहीन चिन्ह।
पर जब पीड़ा का ज्वार उठता है,..
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खो गए रास्ते, शब्द वो अनकहे हो गए गुम!
रही अधूरी ही, बातें कई,
पलकें खुली, गुजरी न रातें कई,
मन ही रही, मन की कही,
बुनकर, एक खामोशी,
छोड़ गए तुम!..
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ना जाने है क्यों सुस्त धार मेरे कलम की
जो लहराते उर के समंदर की सरदार थी
छटपटाता है अन्तस उमड़ते कितने भाव
उदास मन को है कविता आज तेरी तलाश
बुझा दे कागज़ पर अनकहे भावों की प्यास
अश्रु की बूंद से लिख दे कथा ज़िन्दगी की..
।।इति शम।।
धन्यवाद
पम्मी सिंह ' तृप्ति '..✍️
अच्छा विवेचन
जवाब देंहटाएंगेंहू और गुलाब
सुंदर अंक
वंदन
बेहतरीन अंक, सभी रचनाकारों को हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं 🙏
जवाब देंहटाएंसुंदर अंक !
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर संकलन।
जवाब देंहटाएंहार्दिक धन्यवाद प्रिय पम्मी जी💐
सादर