चांदी का गोटा ....
लहरों पर
टाँक दिया चंदा ने
चाँदी का गोटा
-मंजू मिश्रा
झील के आँचल मे
सिमटी चाँदनी मोहती है
हृदय सारे विश्व का
रात भर संगीत लहरों ने
दिया और झींगुरों ने
गीत गाया प्रीत का
-मंजू मिश्रा
और पढ़वाउंगी.....
चिमनी से निकला धुआँ, चंदा सा आकार,
आँख से मानो बह चलीं, यादें बारंबार।
जैसे तूने छोड़ी थीं, ये राहें उस दिन मौन,
वैसे ही चुप चाँदनी, कहे-सुने अब कौन।
नीला अम्बर ओढ़ के, तेरा रूप रचे,
तेरे बिन भी चाँद है, फिर भी मन न बचे।
भंते! आप वृक्ष को प्रणाम क्यों कर रहे हैं
उस शिष्य ने कहा कि नहीं, लेकिन सोचने वाली बात यह है कि जब यह पेड़ आपकी बातों का कोई जवाब नहीं दे सकता है, तो आपके प्रणाम करने से क्या फायदा है? अपने शिष्य की बात सुनकर तथागत मुस्कुराए और बोले कि यह वृक्ष भले ही हमारी आपकी तरह बोलकर कुछ न कह रहा हो, लेकिन यह प्रकृति की भाषा में हमारे प्रणाम का उत्तर खुशी से झूमकर दे रहा है। जिस वृक्ष ने मुझे छाया दी, शीतल वायु प्रदान किया, सूरज की तेज किरणों से मुझे बचाया, उसके प्रति आभार व्यक्त करना मेरा कर्तव्य है।
हिंदी का अपना सलीका है ।
बोलियों का विशाल कुनबा है ।
कई भाषाओं से गहरा रिश्ता है ।
हिंदी का स्वभाव ही ऐसा है ।
हिंदी हर साँचे में ढल जाती है ..
हैदराबादी या मुंबइया हिंदी है !
ख्वाहिशें बहुत रही,
उसमें कुछ पूरा हुआ।
जो रह गया अधूरा,
कहाॅं वो कभी पूरा हुआ ।
व्यर्थ में इसकी चिंता कर,
ज़िन्दगी गॅंवा रहे हो।
जो पल जी रहे हो,
विचार में भाषाओं में हिंसा होती है, क्योंकि समाजों में हिँसा होती है और
भाषाएँ समाजों के प्रतिबिम्ब होती हैं। समाज की हिंसा से लड़े बिना,
भाषा की हिंसा से लड़ने का क्या फायदा है?
मेरे विचार में व्यक्तियों को नीचा दिखाने वाले शब्दों को बदलने का
पहला कदम उन व्यक्तियों की आत्मचेतना है जिससे उन्हें अपनी स्थिति की समझ आये,
वह स्वयं उस शब्द को अस्वीकार करें। यह पहला कदम आसान नहीं है क्योंकि
हम जिन समाजों में पलते और बड़े होते हैं, वह बचपन से हमारी सोच को प्रभावित करता है।
बचपन से अपने लिए सुनी नकारत्मक बातें हमारे भीतर घर बना कर रहती हैं,
हम खुद अपने आप को नीचा, कमज़ोर, मानने लगते हैं।
परेश और राघव चुपचाप खड़े अभिजीत को सुन रहे थे। अभिजीत ने कहना जारी रखा- "इन लोगों के न रहने पर इनकी औलादें दिखावे के लिए इनका श्राद्ध करेंगी। मुझे कोई अफ़सोस नहीं कि मैं श्राद्ध नहीं करता। मैं तो इनमें ही अपने पितरों को देखता हूँ और इनको भोजन करा के मुझे ख़ुशी मिलती है।"
सुंदर अंक
जवाब देंहटाएंआभार
सादर
बेहतरीन अंक
जवाब देंहटाएंयशोदा जी को मेरे आलेख को इस संस्करण में जगह देने के लिए दिल से धन्यवाद
जवाब देंहटाएंसचमुच, अच्छा लगा यहां आकर, ब्लाग की रचनाएं बेहद सराहनीय हैं। साधुवाद
जवाब देंहटाएंखूबसूरत अंक! मेरी लघुकथा को इस सुन्दर पटल पर स्थान देने के लिए आभार आ. यशोदा जी!
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