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शुक्रवार, 3 मई 2024

4115...ठीक से समझ न सका

शुक्रवारीय अंक में
आप सभी का स्नेहिल अभिवादन।
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जीवन भी अबूझ पहेली सी महसूस होती है  किसी पल ऐसा महसूस होता है कुछ भी सहेजने की,समेटने की जरूरत नहीं। न सेहत, न रिश्ते, न पैसा या कुछ और...
फिर अनायास एक समम ऐसा आता है जब सब कुछ खुद ब खुद सहेज लिया जाता है।
एक उम्र में सबकुछ सहेजना खासा संतुष्ट करता है, उपलब्धि-सा लगता है,
और सब पाकर भी कभी-कभी कुछ भी सहेजे जाने की,,पाने की इच्छा और ऊर्जा दोनों ही नहीं बचती।
विरक्ति का ऐसा भाव जब महसूस होता है
जो चला गया, गुजर गया, रीत गया,छूट गया  दरअसल वो आपका, आपके लिए था ही नहीं। 
परिवर्तन तो निरंतर हो रहा है पर मन स्वीकार नहीं कर पाता है और परिवर्तन को स्वीकार न कर पाने के  दुःख में मनुष्य बहुत सारा बेशकीमती समय गँवा देता हैं।
 प्रतिपल हो रहे परिवर्तन को महसूस कर, स्वीकार करना ही निराशा और हताशा के भँवर से बाहर खींचकर

जीवन  को सुख और संतोष से भर सकता है।

आज की रचनाएँ-

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छल

उसकी 'आहमें है श्राप जितनी शक्ति
जिससे नष्ट हो सकता है किसी का
समस्त संचित पुण्यकर्म
इसी तरह पुरुष दोहराता था यें दो बात
कोई उसे ठीक से समझ न सका आज तक
जल्दी भरोसा करने की उसे
एक खराब आदत रही सदा


मताधिकार



कारण अनेक हैं बंधु
कङी धूप से लेकर 
उदासीनता तक,
पर विकल्प एक यही है,
चुनाव करना ज़रुरी है,
वर्ना अधिकार आलोचना का
भी छिन जाएगा फ़ौरन !
मौका बस एक यही है
मत की महत्ता जताने का !


शायरी...


मेरी चाहत का जादू तुझपे ऐसा चला
कि तुम एहसास दिल में छुपा ना सके
जो दिल की धड़कीं धड़कनें मेरे लिए 
आवाज़ मुझ तक ना आने से छुपा सके।

मत इस तरह मेरे ख्वाबों में आया करो
मचल उठता है दिल मोहब्बत के लिए 
मत सांसों में इस तरह आया जाया करो
अधर फड़क उठते हैं गुनगुनाने के लिए।


नये-नये दो आकर्षण में



धूर्त तत्त्व जो  आसपास के
लगे जुटाने  तत्त्व नाश के
इक चिंगारी काम कर गयी
जीने वाली  चाह  मर गयी
 
ऐसे  ध्वंस  बहुत  होते हैं
बिन  अनुभव  वाले रोते हैं
दुःख के  बोझे  भी ढोते है
जीवन को प्रतिदिन खोते हैं



जीनोम एडिटिंग


गुरु का काम ही है कि दस साल में वो भी पहचान ले कि किस बच्चे में क्या पोटेंशियल है. किसे मेडिकल में जाना चाहिए, किसे इंजीनियरिंग में. कौन खेल से नाम कमायेगा और कौन संगीत साधना करेगा. ये गुरु की पारखी नजरों से छिपा नहीं रह सकता था. गुरु तो वहीं का वहीं रह जाता है, चेले पता नहीं क्या-क्या अफलातून बने फिरते हैं. पिता जी ने गणित के मास्साब को मुझे इंजीनियर बनाने की सुपारी दे रखी थी. इसलिए वो मेरी जीन एडिटिंग का कोई भी मौका नहीं छोड़ते थे. उनके पास कई तरीके कई थे - ऊँगली के बीच पेन्सिल दबाना, कान खींचना/उमेंठना, डस्टर सर पर खटखटा देना आदि-इत्यादि. जीन एडिटिंग का उनका प्रमुख शस्त्र था, नीम की संटी. जो वो मुझी से तुड़वाते. उनकी उसी एडिटिंग का अमूल्य योगदान है जो मैं गिरते-पड़ते इंजीनियर बन ही गया. 


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आज के लिए इतना ही
मिलते हैं अगले अंक में ।
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2 टिप्‍पणियां:

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