शुक्रवारीय अंक में
आप सभी का स्नेहिल अभिवादन।
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बुद्धिजीवियों की सराहना करती दुनिया
वैचारिकी क्रांति का अजीबोगरीब
प्रदर्शन करती है।
दूसरों की आँसुओं से भरी
आँख में झाँकने की चेष्टा न करना,
जोर की ठोकर पर धीरे से कराहना,
घटनाओं पर प्रतिक्रियाविहीन व्यवहार
तटस्थ मौन रहना सभ्य होने का मापदंड(?)
संवेदनहीन होते समाज का जिम्मेदार चरित्र
अनमयस्क आचरण से
सकारात्मकता की नयी परिभाषा गढ़ रहे।
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रूखे मौसम में ,झंझरी पेड़ के
सिकुड़े नम मटमैले पत्ते,
घने कुहरे की चादर ओढ़कर
धीमे-धीमे चलता शहर ...
अजीब-सी उदासी से भर देते हैं
ठंडी हवायें हौले-हौले
गरमा रही हैं
तिथियाँ कह रही हैं
कुहासे के दूसरे छोर पर
वसंत प्रतीक्षा में खड़ा है...।
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आइये आज की रचनाएँ पढ़ते हैं-
पर उतने भी नहीं नश्वर
जितने वो सारे बुलबुले,
जो अनगिनत थे तैरते
कुछ पल के लिए हवा में
हमारे बचपन में
खेल-खेल में,
रीठे के पानी में
डूबो-डूबो कर
पपीते के सूखे पत्ते की
डंडी से बनी
फोंफी को फूँकने से .. बस यूँ ही ...
कहीं ऐसा तो नहीं होगा
काउंट कम होने के कारण,
आत्मा त्रिशंकु जैसा अधर में लटका होगा।
न स्वर्गवासी न नरकवासी की
उपाधि आयेगी।
अरे पूजा में पंडितो की जमात पर
मेरे नाम के आगे पर स्वर्गवासी ही लगाएगी।
इस झूठे प्रमाणपत्र के चक्कर में
आत्मा यमपुरी के चक्कर लगाएगी।
मुक्ति न मिलेगी तो,
सबको भूत बन कर सताएगी,
फिर आत्मा शांति के लिऐ
कवियों की मंडली शायद
मेरे स्मरण में कवि सम्मेलन करवाएगी,
सदियों पूर्व बना
व्यापार का केंद्र
तापी के तट पर बसा सूरत
इतिहास रचा गया
साबरमती के तट पर
पोरबंदर बापू की
अनमोल स्मृति दिलाता है !
गढ़े मानक आस्था के
सोमनाथ की अमरता ने
जगायी श्रद्धा और भक्ति
द्वारिका की हवा में जादू है
उमड़ती हज़ारों की भीड़
कृष्ण, रुक्मणी, सुदामा
जैसे आज भी जीवित हैं !
हल्की रजाईयों को पहले हाथों से बनाया जाता था। जिसमें बहुत ज्यादा मेहनत, समय और लागत आती थी। समय के साथ-साथ बदलाव भी आया। अब इसको बनाने में मशीनों की सहायता ली जाती है। सबसे पहले रुई को बहुत बारीकी से अच्छी तरह साफ किया जाता है। फिर एक खास अंदाज से उसकी धुनाई की जाती है, जिससे रूई का एक-एक रेशा अलग हो जाता है। इसके बाद उन रेशों को व्यवस्थित किया जाता है फिर उसको बराबर बिछा कर कपड़े में इस तरह भरा जाता है कि उसमें से हवा बिल्कुल भी ना गुजर सके। फिर उसकी सधे हुए हाथों से सिलाई कर दी जाती है। सारा कमाल रूई के रेशों को व्यवस्थित करने और कपड़े में भराई का है जो कुशल कारीगरों के ही बस की बात है। रूई जितनी कम होगी रजाई बनाने में उतनी ही मेहनत, समय और लागत बढ़ जाती है। क्योंकि रूई के रेशों को जमाने में उतना ही वक्त बढता चला जाता है।
मेरे दिल की नाजुक रगों से उसके तार बंधे थे। मेरे गुरुजी की कुछ ही सालों बाद कैंसर से डैथ हो गई थी उस समय तक उनके बच्चे भी सैटिल नहीं हुए थे। पता नहीं क्या हुआ सबका…।गुरुजी जिस तानपूरे को गोद में रखकर लाए थे उसको मैं किसी हाल में खुद से दूर करना नहीं चाहती थी। तानपूरा मुझे यह भी याद दिलाता था कि एक सुप्त पड़ी कला है मुझमें, कभी मौका लगा तो फिर से सुरों से सुरीला होगा जीवन। बेशक अभी जीवन से संगीत दूर हो गया हो। लगता जब गुरूजी की इतनी फेवरिट थी तो कुछ तो प्रतिभा रही ही होगी ?
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आज के लिए इतना ही
मिलते हैं अगले
अंक में।
अपन। फरवरी। चौबीस देख रहे हैं
जवाब देंहटाएंआभार
सादर
सुप्रभात ! सुंदर रचनाओं का चयन, बहुत बहुत आभार यशोदा जी !
जवाब देंहटाएंजी ! .. सुप्रभातम् सह नमन संग आभार आपका .. इस अद्वितीय मंच पर आज की अपनी अनुपम संकलन वाली प्रस्तुति में हमारी बतकही को स्थान प्रदान करने के लिए ...
जवाब देंहटाएंहर बार की तरह ही आज की प्रस्तुति की भूमिका अन्य रचनाओं पर भारी होने का भान करा रही है .. शायद ...
"कुहासे के दूसरे छोर पर
वसंत प्रतीक्षा में खड़ा है" .. पर मैदानों से इतर पहाड़ों के दामन में हिमपात के कारण वही वसंत कोसो दूर लग रहा है .. शायद ...
"आँख में झाँकने की चेष्टा न करना,
जोर की ठोकर पर धीरे से कराहना" ... इन दो पंक्तियों में हमारे तथाकथित बुद्धिजीवी समाज के दो वर्गों की अप्रतिम व्यंजना है ... शायद ...
मेरी रचना का चयन करने के लिए हृदय से आभार 🙏
जवाब देंहटाएंउत्कृष्ट लिंकों के साथ लाजवाब प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंअनमयस्क आचरण से सकारात्मकता की नयी परिभाषा गढ़ रहे। 👌👌
तिथियाँ कह रही हैं
कुहासे के दूसरे छोर पर
वसंत प्रतीक्षा में खड़ा है...।
कहीं वापस ना लौट जाय प्रतीक्षा से थककर
उत्कृष्ट लिंकों के साथ लाजवाब प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंअनमयस्क आचरण से सकारात्मकता की नयी परिभाषा गढ़ रहे। 👌👌
तिथियाँ कह रही हैं
कुहासे के दूसरे छोर पर
वसंत प्रतीक्षा में खड़ा है...।
कहीं वापस ना लौट जाय प्रतीक्षा से थककर