देखो हमें
हम मांस के थरथराते झंडे हैं
देखो बीच चौराहे पर बरहना हैं हमारी वही छातियाँ
जिनके बीच
तिरंगा गाड़ देना चाहते थे तुम
देखो सरेराह उघडी हुई
ये वही जांघे हैं
जिन पर संगीनों से
अपनी मर्दानगी का राष्ट्रगीत
लिखते आए हो तुम
हम निकल आयें हैं
यूं ही सड़क पर
जैसे बूटों से कुचली हुई
मणिपुर की क्षुब्ध लरजती धरती
अपने राष्ट्र से कहो घूरे हमें
अपनी राजनीति से कहो हमारा बलात्कार करे
अपनी सभ्यता से कहो
हमारा सिर कुचल कर जंगल में फैंक दे हमें
अपनी फौज से कहो
हमारी छोटी उंगलियाँ काटकर
स्टार की जगह लगाले वर्दी पर
हम नंगी निकल आयीं हैं सड़क पर
अपने सवालों की तरह नंगी
हम नंगी निकल आयीं हैं सड़क पर
जैसे कड़कती है बिजली आसमान में
बिल्कुल नंगी.......
हम मांस के थरथराते झंडे हैं @ अंशु मालवीय
हाज़िर हूँ...! पुनः उपस्थिति दर्ज हो...
बाँका में जन्मे और वर्तमान में पाटलिपुत्र विश्वविद्यालय में दर्शनशास्त्र के अध्यापक के रूप में कार्यरत डॉ. चन्दन सिंह की 'पाँच स्त्रियाँ दुनिया की असंख्य स्त्रियाँ हैं' नामक कविता सोशल मीडिया पर ख़ूब चर्चित हो रही है। मणिपुर की हालिया घटनाओं के संदर्भ में इसकी प्रासंगिकता अचानक और अधिक महसूस की जाने लगी है। महिलाओं के प्रति इस प्रकार की कोई भी हिंसा इस कविता को बारंबार प्रासंगिक बनाती रहेगी। 'बारिश के पिंजड़े में' कविता-संग्रह में संकलित यह कविता आप भी पढ़िए और विचार करिए –
★
खेतों में उग रही है कपास
प्रजननरत हैं रेशम के कीड़े
भेड़
नाई के यहाँ जा रही हैं
घूम रहा है चरख़ा
चल रहा है करघा
ख़ूब काते जा रहे हैं सूत
ख़ूब बुने जा रहे हैं कपड़े
ऐन इसी समय
पाँच स्त्रियों को नंगा किया जा रहा है
गाँव के बीचों-बीच
भरी भीड़ में
एक-एक कर नोचे जा रहे हैं सारे कपड़े
देह से अंतिम कपड़ों के नुचते ही
उनकी बाँहें और टाँगें
आपस में सूत की तरह गुँथकर बन जाना चाहती हैं
ख़ूब गझिन कपड़े का कोई टुकड़ा
गालियाँ बकती हुई बंद करती हैं वे अपनी आँखें
तो पलकें चाहती हैं मूँद लेना पूरा शरीर
आत्मा चाहती है बन जाना देह की चदरिया
पाँच स्त्रियों को बहुत चुभता है
दिन का अश्लील प्रकाश
भीड़ में कोई नहीं सोचता कि अब
फूँककर बुझा देना चाहिए सूर्य!
पाँच स्त्रियों को चलाया जाता है
यहाँ से वहाँ तक
वहाँ से वापिस नहीं लौटना चाहती हैं वे
मुड़ जाना
किसी पथरीले और जंगली समय की ओर
जब तन ढँकने का रिवाज नहीं था
अधिक से अधिक
देह की चमड़ी भर उतारी जा सकती थी
शर्म से लहूलुहान पाँच स्त्रियाँ
देह पर लाज भर लत्ता नहीं
धीरे-धीरे सारी लाज
सहमी हुई जा दुबकती है नाख़ूनों की ओट में
बची हुई मैल के बीच
जब पहली बार पृथ्वी पर
कपास को दूह कर काता गया होगा
पहला-पहला सूत
उसी समय पहले सूत से ही बुन दी गई होगी
पाँच स्त्रियों की नग्नता
पाँच स्त्रियाँ दुनियाँ की असंख्य स्त्रियाँ हैं
कभी विज्ञापनों में
कभी माँ के गर्भ में ही
कभी पीट-पीटकर जबरन
नंगी की जाती हुई
और कभी-कभी तो कोई कुछ करता भी नहीं
अपने ही हाथों उतारने लगती हैं वे अपने कपड़े चुपचाप
अब क्या करना होगा इन्हें फिर से ढँकने के लिए?
अख़बार में छपी है ख़बर
पर कहता है दर्ज़ी कि नाप से कम है ख़बर
सदन में जो बहस हुई
नाप से कम है
कम है नाप से कविता
श्रीकृष्ण वस्त्रालय पर लगा हुआ है ताला
और वह रास्ता
जो जाता है यहाँ से गांधीनगर की ओर
जहाँ एशिया का सबसे बड़ा कपड़ा बाज़ार है
कहीं बीच में ही खो गया है
तो क्या
अब हमारी इस पृथ्वी को अपनी धुरी पर
किसी लट्टू की तरह नहीं
बल्कि एक तकली की तरह घूमना होगा?
***सादर साभार प्रेषित/संबोधी पत्रिका
••••स्त्रियों का शरीर
दरअसल, फाँसी बनता जा रहा है
जैसे बनती जाती है
चिड़िया अपने ही घोंसले में
बेगाने शत्रु के शिकार
शत्रु जो नहीं जानता कि
नींद से जागी हुई स्त्रियों के
देह को,
जब वो अपने ही खोल के अंदर समेट लेती हैं
तब प्रकृति भी उसके आगे विवश हो जाती है
तुम जो सोचते हो कि
जानते हो उसके अंग प्रत्यंग के बारे में
तो जान लो कि
तुम नहीं जानते उसके देह के विज्ञान को
अंधों की तरह टटोलते हुए
जब पहुंचते हो उसकी दहलीज पर
तब फेंक दिये जाते हो
स्त्री के मन, माँ की कोख, बहन की आँखों,
पत्नी के प्यार और बेटी की श्रद्धा से
जब नहीं बचता कुछ भी तुम्हारे पास
तो छोड़ क्यों नहीं देते
अपने ही तन को एक कालकोठरी में
जहां सबकुछ उलट जाये,
पेड़ रस्सी तोड़ दे
धर्म तुम्हारा साथ देना छोड़ दे
धरती तुम्हें गोद में लेने से इंकार कर दे
और तुम्हारा नाम तुम्हारा न होकर
'वहशी' हो जाये।
कात्यायनी दीप©
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नींद में नंगी जाग गई औरत
सच में नंगी भाग रही औरत
राजा के दरबार में खड़ी है निर्वस्त्र
कौन उठाएगा इनके पक्ष में अस्त्र
नंगी औरतों की फोटो को हजार मेगा पिक्सल में फाड़ कर देख रहे लोग
नंगी औरतें तुम्हारे घरों में खाना बना रही
तुम्हारे बच्चों को स्कूल छोड़ रही
कर रही काम जंगल में खेत में
वो इतनी नंगी हैं के उन्हें नापा जा सकता है
वो इतनी निरीह हैं के उन्हें हिस्से में बाटा जा सकता है
ये इतनी काली और बदसूरत हैं के इनकी देह में ठहाके से घुस सकते लोग
लोगों के घरों में नंगी औरतें खाने की थाली लिए खड़ी है
पहचानो इन्हें
मेरे आस पास बे इंतहा आवाज का शोर है
देश का ओर है या छोर है
कहां से आ रहीं है भीड़ की आवाज
सावन के दिनों में पेड़ों से छिली जा चुकी है हरियाली
तुम्हारे लिए तो खड़ी है घर वाली
भरी है खाने से तुम्हारी थाली
ध्यान से देखो कपड़े किधर हैं उसके
ध्यान से देखो
हमारी आंख के पर्दे पर चल रहीं हैं हमारे समय की औरतें
भीड़ खेल रही है इनकी देह से
गर्भ से फूट निकलेगी खून की धार
धरती जानती है बंजर होना
सूख गई इनकी छातियों की कसम
अगला जन्म सुधारना है तो इनके पक्ष में दर्ज करो अपनी आवाज
वरना जाओ और डूब मरो
©शैलजा पाठक
रात के लगभग दो बजने वाले हैं और नींद आंखों से कोसों दूर। हिला कर रख दिया दिलो-दिमाग को पहले मणिपुर और फिर मेरे शहर में हुई शर्मनाक घटना ने। अंततः कलम ले ली हाथ में... शायद बेचैनी का भार कुछ हल्का हो जाए ।
* मृत मणियां *
दुर्भाग्य तुम्हारा मणियों
कि तुमने विषधर के
मस्तक पर जगह पाई
जानती हूं घिरी हो
विषैले सवालों के घेरे में
कि बर्बरता कैसे ताकत बनी होगी
देहों को रौंद कर सांस कैसे ली होगी
वह भी केवल प्रतिशोध की खातिर ??
ओ मणिपुर की मणियों
क्यों रो रही हो
जीते जी हुई अपनी मौत पर
क्यों चीख रही हो इस
नपुंसक भीड़ के सामने
तुम्हारे आंसू और चीख
चर्चा और बयानों में बदल जाएंगे
खबरों में सुर्खियां जुटाएंगे
नेता अपनी रोटियां पकाएंगे ...
भूल जाएंगे सब कुछ समय में
मदर्स-डे और वुमेन्स डे मनाएंगे
आत्म-स्तुति के आवरण में तुम्हारी
लहूलुहान आत्मा को महान बताएंगे ....
अरे ओ मेरे शहर की तितलियों
समझ लो अब यह सच्चाई कि
हर युग में महाभारत की नींव रखी जाती है
सत्ता की चौपड़ पर
कितनी द्रौपदियां लुट जाती हैं....
हम कहां किसी दुशासन
को पहचान पा रहें हैं
हमारी दृष्टि भी अब धृतराष्ट्र हो गई है
इंसानियत की आंखों से
शर्म की बूंदें सूख गई हैं
© मीनाक्षी जोशी
जबरदस्त अंक
जवाब देंहटाएंआभार..
सादर वंदे
ओह .... दर्दनाक
जवाब देंहटाएंबेनामी क्यों .... मैं डॉ निशा महाराणा
जवाब देंहटाएंबहुत बढियां प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंबहुत ही मर्मांतक अंक है दीदी।कथित सभ्य समाज में निरीह औरतें इस तरह के जुल्मों की शिकार होंगी कोई सोच भी नहीं सकता।उफ! लानत है उन नराधम आराजक लोगों पर जिन्होने मानवता को शर्मशार करने का बड़ा ही कुत्सित इतिहास रचा है।उन्हें ना ईश्वर क्षमा करेगा ना कानून।भुक्त भोगी आत्माओं की आह उन्हें निगल जायेगी एक दिन।कवियों ने रचनाओं में सारा दर्द उडेल दिया।आँखे नम हो गई ये रचनाएँ पढ़कर।🙏😔😔😔😔
जवाब देंहटाएंनिःशब्द हूँ दी,सुबह से शब्द ढूँढ रही हूँ क्या लिखूँ समझ नहीं आ रहा।
जवाब देंहटाएंमन बेहद क्षुब्ध है।