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शुक्रवार, 7 जुलाई 2023

3811 ...चुन-चुन करती आई चिड़िया


शुक्रवारीय अंक में
आप सभी का स्नेहिल अभिवादन।
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जात-पात का मानसिक कुष्ठ क्यों है?
ऊँच-नीच की रेखा इतनी पुष्ट क्यों है?
तन की बनावट में फर्क नहीं है
रंग में खून के कोई तर्क नहीं है
इंसानित की चिता जलाने वालों
ये है बस्ती इंसानों की नर्क नहीं है
मिलता नहीं जवाब क्या आपको पता है?
मनुष्य, मनुष्य से इतना रूष्ट क्यों है?

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आइये आज की रचनाओं की दुनिया में-
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सचमुच कुछ लोग फ़ितरतन ऐसे ही होते है जिन्हें दूसरों को दुख देकर सुकून मिलता है। जाने इन्हें फ़र्क क्यों नहीं पड़ता किसी के मन को आहत करके भी।
अंधेरों में तन्हा डरा छोड़़ जाते,
उजालों में वे साथ आते बहुत हैं ।

भूखे से बासी भी भोजन छुपाते,
मनभर को छक-छक खिलाते बहुत हैं ।


एक होनहार बाल रचनाकार 
 की गहन भाव लिए सुंदर गज़ल।
लेखनी को अशेष शुभकामनाएँ
यूँ ही लिखते रहो तुम्हें सूरज सा चमकना है
धरती के अंधेरों में तुम्हें ही उजाला भरना है।

चाँदनी फीकी, हवा भी थमी सी है
चाँद की आँखों में कुछ नमी सी है।।

निकला है चाँद लंबे अरसे के बाद

चेहरे पे उसके हँसी जमी सी है।।



प्रकृति तो भेद-भाव नहीं करती ,उसके लिए तो
सभी एक समान है फिर मनुष्य क्यों नहीं समझता इतनी सहज बात।

धरती भीगे अम्बर भीगे,
सच भीगे आडम्बर भीगे,
जीवन मृत्यु मुक्ति भव भीगे,
भीगे जून दिसम्बर भीगे।
मेरा घाव तुम्हारा नश्तर।
बारिश हो...तो... किसी एक पर?

इतना भी सहज नहीं पुरखों के दिए गये धरोहरों को
संभालना और उसे समय के साथ पल्लवित करते रहना 
वैश्विक धरोहर है समय
 धरोहर है हमारे,
पूर्वजों से जो पाए संस्कार,
इससे ही होता है निर्मित,
हम सबका ही व्यवहार।

पुरखों ने बीज दिया मुट्ठी भर

कहा इसे सम्हाल कर रखना अपने पास

अपने पास जैसे धरती रखती है सब कुछ अपने पास

मिला लेती है अपने मेंनष्ट करने के लिए नहीं

लौटा देती हैफिर ढेर सारा फलबीजवृक्ष और बहुत कुछ

किसी चीज को सम्हालकर रखने के लिए नहीं है कोई सुरक्षित जगह

बस धरती है सुरक्षित जगहसमझना धरती में तुम हो

धरती में होते हुए तुम महसूस करना धरती तुम में है।



और चलते-चलते
पर्यावरण की समस्या दिन-ब-दिन
बेहद गंभीर रूप लेती जा रही है, ऐसे में हम सभी की नैतिक जिम्मेदारी है कि पर्यावरण संरक्षण के प्रति हम सभी अपने दैनिक जीवन में
छोटी सी ,जितनी संभव हो उतनी सकारात्मक योगदान देने का प्रयास करें।
सकारात्मक संदेश से लबालब सुंदर लेख पढ़िए।

अगर हमारा अपना घर है और हम कुछ सौ-हजार हर माह ख़र्च करने में सक्षम हैं तो हमें अपने आसपास के उन्मुक्त पशु-पक्षियों का ख़्याल रखना चाहिए। उनके लिए कुछ उपलब्ध बर्तनों में अनाज-पानी अपनी खुली छत, बालकॉनी या मुख्यद्वार के बाहर नित्य प्रतिदिन रखनी चाहिए। मसलन- कबूतरों या पंडूकों (उत्तराखंड में इसे घुघूती या घुघुती कहा जाता है) के लिए बाज़रे या गेहूँ, गौरैयों के लिए टूटे चावल (खुद्दी), तोतों के लिए पानी में फूले हुए चने या साबूत मूँग, गिलहरियों के लिए मूँगफली के दाने, गली के कुत्तों के लिए दूध-रोटी और इन सभी के लिए सालों भर पीने के पानी अपने पास उपलब्ध बर्तनों में परोसा जा सकता है। साथ ही घर में कटी सब्जियों या फलों के अनुपयोगी अवशेषों को कचरे के डिब्बे में ना डाल कर आसपास में किसी द्वारा पाले गए गाय-भैंसों या बकरियों को या फिर किसी उपलब्ध गौशाले में दे देना चाहिए।
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 आज के लिए इतना ही

कल का विशेष अंक लेकर

आ रही हैं प्रिय विभा दी।







5 टिप्‍पणियां:

  1. तृषित मरुस्थल कण-कण भीगे,
    तपित विरहिणी क्षण-क्षण भीगे,
    रोम-रोम रसमय हो भीगे,
    अंकुर -अंकुर तृण-तृण भीगे।
    शानदार अंक
    आभार
    स्वस्थ रहें-मस्त रहें

    जवाब देंहटाएं
  2. सारे परबचन होते हैं
    इसलिए मनुष्य, मनुष्य से रुष्ट होते हैं

    बढ़िया

    जवाब देंहटाएं
  3. जी ! नमन संग आभार आपका .. मेरी बतकही को अपने मंच पर स्थान देने के लिए ...
    साथ ही कम से कम शब्दों में गहरी बातों को अपनी प्रस्तुति की भूमिका में संदेशपरक ढंग से पेश करने के लिए .. इंसान या इंसानियत हैं ही कहाँ धरती पर, कोई अपनी भाषा के लिए, तो कोई अपने धर्म-सम्प्रदाय के लिए, तो कोई अपनी जाति तो जाति, उपजातिसूचक 'टाइटल' के लिए भी (कि हमहीं सबसे उत्तम हईं), तो कोई पद के लिए, कोई दौलत के लिए अपनी-अपनी गर्दन में 'स्टार्च' लगा-लगा के उसे अकड़ाए हुए है .. और रही बात इंसान - इंसान में "फ़र्क" की तो .. धर्म-मज़हब से भी ज्यादा 'फ़र्क" करने वाला "फ़र्क" है, तभी तो "आरक्षण" है .. समस्त धरती पर ना सही .. कम से कम बुद्धिजीवियों के भारतवर्ष में तो हैं ही ना !?
    ख़ैर !!! ... आइए ! .. हम सब मिल कर दुहराते हैं .. कि ..
    "विधि का विधान जान हानि लाभ सहिये
    जाहि विधि राखे राम ताहि विधि रहिये॥।सीताराम सीताराम सीताराम कहिये ..."
    🙏🙈🙉🙊🙏 .. बस यूँ ही ...

    जवाब देंहटाएं
  4. "विश्व पर्यावरण दिवस" मनाने के नाम पर औपचारिक पौधे-रोपण वाली 'सेल्फ़ी' को 'सोशल मीडिया' पर चिपका कर इस में उनकी भागीदारी का क्या औचित्य है भला :-

    (1) जिन्होंने भारतीय समाज में "परिवार नियोजन" शब्द के समाहित होने के बाद भी परिवार नियोजन के तहत निर्धारित संख्या सीमा से अधिक सन्तानें इस समाज को सौंपी हों।
    (2) जो अपने घर में 'फ़्रिज' और 'ए सी' जैसे उपकरणों का उपयोग/उपभोग कर रहे हों।
    (3) जो धूम्रपान करने के आदी हों।
    (4) जो माँसाहार जैसे व्यसन से ग्रस्त हों।
    (5) जो अपने "शौक़" और "पालने" के नाम पर पशु-पक्षियों, नभचर-जलचर को अपने घर के दायरे में परतन्त्र कर रखे हों।
    (6) जो धर्म-आस्था की आड़ में समय-समय पर पर्व-त्योहारों के नाम पर पावन नदियों में या नदी तटों पर मनमाने ढंग से गन्दगी फैला आते हों।
    (7) जो पर्यटन के नाम पर पहाड़ों, जंगलों, पर्यटन स्थलों पर रास्ते भर अपने अनुपयोगी कचरे बिखेरने में तनिक भी गुरेज़ ना करते हों।
    (8) जो उत्सवों के नाम पर आतिशबाज़ी को जन्मसिद्ध अधिकार समझते हों।
    इत्यादि-इत्यादि ...

    पर्यावरण संरक्षण या संवर्द्धन केवल पेड़-पौधों को बचाना या बढ़ाना भर नहीं है, बल्कि समस्त जीव-जन्तुओं, नदी-पहाड़ों, हवा-पानी को सुरक्षित रखना है .. शायद ...

    जवाब देंहटाएं
  5. इंसानित की चिता जलाने वालों
    ये है बस्ती इंसानों की नर्क नहीं है।
    दमदार भूमिका के साथ लाजवाब प्रस्तुति
    सभी लिंक्स बेहद उम्दा एवं पठनीय
    मेरी रचना को भी यहाँ स्थान देने हेतु बहुत बहुत धन्यवाद एवं आभार प्रिय श्वेता !

    जवाब देंहटाएं

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