।। प्रातः वंदन।।
खुल रही आँखें
नयी इस ज़िन्दगी के भोर में !
उठ रहा
उठते दिवाकर संग जन-समुदाय,
भर कर भावना बहुजन हिताय !
अंतर से निकलती आ रही हैं
विश्व के कल्याण की
नव्य-जीवन की सुनहरी आब-सी
स्वर्गिक दुआएँ !
महेंद्र भटनागर
चलिए आज फिर से शब्दों के सागर में चंद पल बिताए ✍️
झुर्रियां
वो मेरी बातों में उलझें !
मेरी मानो हो तो ऐसा कर देना
सारे घावों को उसके तुम भर देना ।
आकर जिसमें चैन मिले , सुख पाए मन
हर बन्दे को ,अपना ऐसा घर देना
🌟
कोई दस ग्यारह बरस की रही हूँगी मैं, उस समय गैस चूल्हा नहीं हुआ करता था घरों में । होता भी होगा तो मुझे मालूम नहीं । हम लोग खाना पकाने के लिये अँगीठी का उपयोग किया करते थे । उसमें कोयले डालकर उसे जलाया जाता था।
कोयले लाने के लिए मैं भी कई बार पापा जी के साथ कोयले की टाल पर जाया करती..
🌟
यह कैसी अनोखी बस्ती है
जहाँ सास न कोई रहती है
न ननद है, न देवर कोई
बस पति-पत्नी से चलती है
ख़ुद खाते हैं, ख़ुद पीते हैं
🌟
जग जाये वह तर ही जाये
रग-रग में शुभ ज्योति जलाये,
धार प्रीत की सदा बरसती
बस उस ओर नज़र ले जाये !
।। इति शम।।
धन्यवाद
पम्मी सिंह 'तृप्ति'✍️
उम्दा रचनाएं ।मेरी रचना को स्थान देने हेतु आभार ।
जवाब देंहटाएंसुप्रभात! एक से बढ़कर एक लिंक्स का चयन किया है आपने पम्मी जी, 'मन पाये विश्राम जहां' को स्थान देने हेतु आभार!
जवाब देंहटाएंसुन्दर प्रस्तुति, बधाई 💐
जवाब देंहटाएंमेरी भी रचना को स्थान देने के लिए आभार 🙏