“सर , कुछ लोग जो बहुत निराशा से घिरे थे , उनकी सफलता के सारे रास्ते बंद हो गये थे , मैं फिर भी उन्हें आशा की सीढ़ियाँ चढाती रही परिणाम वे गिर गये और जो चोट लगी उससे वे कभी नहीं उभरे | सो उनके परिजन ने मुझे बहुत अपमानित कर निकाल दिया |”
हाज़िर हूँ...! पुनः उपस्थिति दर्ज हो...
बढ़ती आबादी पर कौन विचार करे...
शीर्षक पर भी तो श्रम नहीं होता
अब वहाँ कौन मेरे स्वागत को तैयार है? मुझे कौन बुलाता है? ये गारे-सीमेंट के स्पन्दनहीन अट्टालिकाएँ मुझे क्या पहचानेंगी? मेरे शीशम- देवदार, पीपल-बरगद जैसे कद्दावर वृक्ष, फल-सब्जियों के सारे द्रुम इन कंक्रीट के जंगलों की सड़कों और इमारतों ने खा लिया है। मेरे लिए कोई बाँह फैलाए है भला, बता जरा?
बयालिस (42) साल में क्या बदला...
सुना जाता है, उसी दिन से दोनों पक्ष अख़बार और संविधान पढ़ पढ़ कर लड़ रहे हैं। नेता-वेशधारी भगवान विष्णु शेष शय्या छोड़कर आनंद से कुर्सी पर सोए हुए हैं। लोग कहते हैं, युग बदल रहा है। (1.12.1981)
जिस तरह (आरम्भ) और (प्रारम्भ) शब्द दोनों एक से दीखते हैं मगर दोनों में अंतर है वे कभी एक नहीं कहे जा सकते। ठीक उसी प्रकार कथा और लघुकथा कभी एक नहीं हो सकतीं, दोनों विधाओं की कसौटी अलग है।
वैसे तो लेखिका ने लगभग सभी विषयों पर लेखनी चलाई है लेकिन कुछ विषयों पर बहुत कम लिखा है जैसे पंडे-पुजारियों के आचरण पर, आत्मविश्वास, बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ। कुछ विषय लेखिका की नजरों से छूट गये
बहुत अच्छी हलचल प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंसदा की तरह
जवाब देंहटाएंचमत्कारिक प्रस्तुति
सादर वंदे
लघुकथा को कम शब्दों में समझाने के लिए आभारी हूँ दी।
जवाब देंहटाएंपूनम जी की लघुकथा बहुत अच्छी लगी।
डॉ.शर्मा को पूरा नहीं पढ़ पाये हैं।।
संदीप जी और लता जी की बातचीत ज्ञानवर्धक है और अंत में पुस्तक समीक्षा भी बढ़िया लगी।
सुंदर संकलन दी।
प्रणाम
सादर।
वाह लाजबाव
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