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गुरुवार, 10 दिसंबर 2020

1973 ...पराये बन वो जाते हैं तो आँसू फिर बहाते हो

सादर वन्दे.
दिसम्बर का दसवां दिन 
जाने की हर किसी को जल्दी रहती है
मानव जाति को छोड़कर
दस प्राणियों की उमर मांगकर जो लाया है
कहाँ मैं दर्शन की बात ले बैठी...
चलिए रचनाओं की ओर...




अपनों को परखकर यूँ परायापन दिखाते हो 
पराए बन वो जाते हैं तो आंसू फिर बहाते हो
न झुकते हो न रुकते क्यों बातें तुम बनाते हो 
उन्हें नीचा दिखाने को खुद इतना गिर क्यों जाते हो
पराये बन वो जाते हैं तो आँसू फिर बहाते हो





बिहान और साँझ के दरमियान 
बह चुका है एक अजस्र जल -धार, 
अब शब्दहीनता के साथ बातें करता है
गाढ़ अंधकार। प्रस्रव मर्मघातों पर 
रात्रि रख चली है, ओस में भीगे हुए कुछ सजल 
अनुकंपाओं के कपास,मौन उड़ान सेतु के नीचे 


“छपक” “छप” बारिशों की दौड़ अल्हड़
गली में क्यों नज़र आती नहीं है
 
अभी भी ओढ़ती है शाल नीली
मगर फिर भी वो इठलाती नहीं है


ओ संध्या सुन्दरी
सूरज की पहली किरण तू, 
चाहत का जादू तुझमें, 
पल में कर देती है रोशन, 
पल में कर देती हैं अंधेरा, 
तो संध्या सुंदरी, 

तारों की टिम-टिम तू,
चंदा की आंख मिचोली तू, 
बादलों की तरह, 
हर रंग रूप में छायी तू, 
ओ संध्या सुंदरी , 

आज बस इतना ही
सादर


8 टिप्‍पणियां:

  1. शुभ प्रभात दिबू...
    शानदार-जानदार प्रस्तुति..
    आभार..
    सादर..

    जवाब देंहटाएं
  2. बेहतरीन अंक..
    साधुवाद..
    सादर ..

    जवाब देंहटाएं
  3. असीम शुभकामनाओं के संग शुभ दिवस
    सराहनीय प्रस्तुति

    जवाब देंहटाएं
  4. बेहतरीन सूत्रों से सजा सराहनीय अंक प्रिय दिबू।
    सस्नेह बधाई।

    जवाब देंहटाएं
  5. शानदार प्रस्तुतीकरण उम्दा लिंक संकलन
    मेरी रचना को स्थान देने व शीर्षक लेने हेतु तहेदिल से धन्यवाद एवं आभार प्रिय दिव्या जी!
    सभी रचनाकारों को बधाई एवं शुभकामनाएं।

    जवाब देंहटाएं
  6. संकलन व प्रस्तुति दोनों आकर्षक, सभी रचनाएँ असाधारण हैं, मुझे जगह देने हेतु हृदय तल से आभार - - नमन सह।

    जवाब देंहटाएं
  7. बहुत बहुत धन्यवाद आप सभी को...

    जवाब देंहटाएं

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