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रविवार, 2 फ़रवरी 2020

1661....शहर में वसंत

जय मां हाटेशवरी....
 पहले 22 जनवरी, फिर 1 फरवरी.....
अब एक नयी तिथि को.....
निर्भया के दोषियों को फांसी मिलेगी.....
फांसी शब्द सुनकर कुछ पल के लिये सारे शरीर में कंपन सी हो जाती है......
पर  इनके द्वारा निर्दोष निर्भया के साथ किये  घृणित कृत्य को सोचकर.....
मन इन्हे फांसी से भी कठोर सजा की मांग करता है.....
शायद ये दुष्ट अपने किये की सजा ही भोग रहे हैं......
जिस कारण इनसे  मौत भी दूर भाग रही है.....
आज कल इन्हे  एक-एक पल.....
मौत से भी भयावा लग  रहा होगा.....
कानून व न्याय पर भरोसा रखिये.....
इन्हे इनके किये की सजा अवश्य मिलेगी....
कानूनी प्रकृया भले ही लंबी है.....
पर अच्छी है, जो दोषियों को भी अपनी बात रखने का बार बार मौका देती है....
इसी कारण हम सब का विश्वास कानून पर है......
निरभया को इनसाफ अवश्य मिलेगा.....
पर सही अर्थों में तो निरभया को इनसाफ तभी मिलेगा.....
जब देश की हर बेटी कोक से लेकर हर स्थान व  समाज में   सुर्क्षित होगी.....
अब पेश है आज के लिये मेरी पसंद.....

शहर में वसंत
Image may contain: plant, flower, outdoor and nature
गली की नुक्कड़ पर
तीन औरतें
शाम काम से लौटती,
कौन किस तरीके से आज पिटीं ... पर हँसते हुए पायीं गयीं |
शहर में वसंत घनघोर घुला हुआ है ...

मिलजुल रहना जब सीखेंगे
जब चारों ओर अफरातफरी मची हो, कोई किसी की बात सुनने को ही तैयार न हो.  समाज में भय का वातावरण बनाया जा रहा हो और भीड़ को बहकाया जा रहा हो, भीड़ जो भेड़चाल चलती है, जो विरोध करते-करते  कभी हिंसक भी हो जाती है. समाज जब ऐसे दौर से गुजर रहा हो तो सही बात पीछे रह जाती है. यदि सभी अपना-अपना निर्धारित काम सही ढंग से करें

इस धरती की रक्षा करना है

प्रदूषण दुनियां में फ़ैल रहा
परमाणु का खतरा बढ़ रहा
भूकम्प, सुनामी कम्पा रहा
अकाल मृत्यु दस्तक दे रहा।
यह महा-प्रलय की आहट है
सम्पूर्ण जैविकता खतरे में है

मै रोया बहुत अपनी जिन्दगी के लिए
जिनको देखा उन्हें ,
पसंद न मुझे देखना ,
जो आये न पसंद कभी ,
वही खड़े पनाह के लिए

मैं और चिड़िया
Bird, Singer, Singing, Chirp, Tweet, Chirrup, Robin
मेरी आवाज़
मेरे ही घर में
घुटकर रह जाती है,
उसका गीत
पूरा मुहल्ला सुनता है.

अंधा कानून

मोमबत्ती लेकर हाथों में
निकली थी भीड़ यूँ सड़कों पर,
मानो रावण और दुशासन का
अंत तय है अब धरती पर।

आक्रोश जताया मार्च किया
न्याय की मांग किया यूँ डटकर,
संपूर्ण धरा की नारी शक्ति
मानो आई इक जगह सिमटकर।

बसंत के दरख्त

नसों में, बहे रक्त जैसे!
बसंत के ये, खिले से दरख्त जैसे!
गुजर सा गया हूँ!
या, और थोड़ा, सँवर सा गया हूँ?
बसंत के ये, दरख्त जैसे!


धन्यवाद।

8 टिप्‍पणियां:

  1. स्वागत योग्य भूमिका से सुसज्जित अंक ,सभी को प्रणाम।
    फांसी अथार्त पल-पल मौत का भय और किसी को इनकाउंटर में मार देने में यही तो फर्क है।

    जवाब देंहटाएं
  2. बेहतरीन अंक...
    साधुवाद..
    सादर..

    जवाब देंहटाएं
  3. उव्वाहहहह..
    बढ़िया वासंती प्रस्तुति..
    सादर..

    जवाब देंहटाएं
  4. सुंदर प्रस्तुति, सुंदर अंक

    जवाब देंहटाएं
  5. इस मानवीय सागर में, कहीं कुछ खूबसूरत घटित होते दिखता नहीं, सिवाय इसके कि प्रकृति अपना काम निर्बाध रूप से किए जा रही है। इसके विरुद्ध कहीं इक हलचल सी है, वो भी निर्बाध सा। लेकिन प्रकृति रुकती नहीं, ठहरती नही!
    मानवीय संवेदना अगर प्रकृति के साथ द्वन्द न करे तो बसंत के दरख्त कभी सूखे ही नहीं ।
    निर्भया भी, इक प्रतीक थीं प्रकृति की । इसके साथ अब भी छेड़छाड़ निर्बाध जारी है। लेकिन, प्रकृति भी अपना काम कर रही है। हर नई तारीख, जालिमों को, डर और खौफ का नया पल ही दे जाती है। आसान नहीं ये पल व्यतीत करना उनके लिए।
    धैर्य ही इस समस्या का हल है। अंततः प्रकृति की ही जीत होगी।
    आज की जीवंत प्रस्तुति हेतु बधाई ।

    जवाब देंहटाएं

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