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शनिवार, 15 फ़रवरी 2020

1674... सवाल जेब का...



PRIYANKAR

यह कुसूर सिर्फ़ उनके पहनावे से जुड़ा हुआ नहीं है
न ही इतना भर कहने से काम चलने वाला कि क्योंकि वे औरतें हैं
जवाब भले दिखता किसी के पास न हो मगर
इस बारे में सोचना ज़रूरी है

जल्दी सोचो!
क्या किया जाए
दिनों-दिन बदलते ज़माने की तेज़ रफ़्तार के दौर में
जब पेन मोबाइल आई-कार्ड  लाइसेंस  और पर्स रखने की ज़रूरत आ पड़ी है



विश्वनाथ सचदेव

इस कविता के सवालों का कोई जवाब मेरे पास नहीं है.
पर मुझे लगता है, जब भी मैं तितली को उड़ते हुए देखता हूं,
शायद कोई जवाब मेरे आस-पास मंडराने लगता है.
पकड़ने की कोशिश करता हूं उसे,
पर तितली की तरह हाथ से फिसल-फिसल जाता है...


शशिभूषण

मेरे सब की धुरी हो तुम
मैं दूसरों की शिक़ायतें तुम्हीं से करना चाहता हूँ... 
कि यह दुनिया मेरे इशारों पर नाचे तो 
अकेला छोड़ दिए जाने पर 
मैं तुम्हारी सुंदर आँखों और प्यारे चेहरे को याद करता हूँ...



भिखारी देखे मुझे गिरा जहाँ, था वोह कोई एक गाँधी रोड.
मुझे उठाने की चाहत में, लगाये वोह एक अंतिम दौड़.

हाय हाय रे ट्रक ने उड़ाया, खायी उसने गहरी चोट.
ढेर हो गया वोह भिखारी, मिला न उसको सौ का नोट.



और तो और पढ़ तो लेते हैं पूरी कविता
पर जब टिप्‍पणी देनी हो तो यूं ही सरक जाते हैं
आपके चाहे हों दो की जगह चार हाथ
तब भी आप ताली नहीं बजा पायेंगे


><><
पुन: मिलेंगे...
><><
हम-क़दम के लिये इस बार का विषय है-
'क़लम'/'लेखनी'

संत कबीर दास जी कहते हैं- 
मसि कागद छुवो नहीं, क़लम गही नहिं हाथ।  

आज बस यहीं तक

3 टिप्‍पणियां:

  1. उव्वाहहहहह
    सदाबहार प्रस्तुति...
    सादर नमन..

    जवाब देंहटाएं
  2. नमस्कार। आज पहली बार इस ब्लॉग पर आई हूं। सभी लिंक बहुत अच्छे हैं। सभी रचनाकारों को बधाई।

    जवाब देंहटाएं
  3. वाह!

    आज यानी 15 फ़रवरी 'जेब ख़ाली डे' में निहित हास्य बहुत गुदगुदाने वाला है। पश्चिमी सभ्यता का बाज़ारवादी शिगूफ़ा भारत में एक अंधानुकरण बन गया है। 'जेब ख़ाली डे' का यथार्थ रूप मैंने स्वयं अपने साथियों में देखा है जिसे आज यहाँ पढ़कर हँसी रुकी नहीं।

    बहुत-बहुत बधाई आदरणीया दीदी इस बेहतरीन प्रस्तुति के लिये।

    सादर नमन।

    जवाब देंहटाएं

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