सादर अभिवादन।
वे
व्यस्त हैं
चर्चा में
दुनिया को
झोंक देना चाहते हैं
परमाणु युद्ध में
एक हम हैं कि
भिड़े हैं अंतरयुद्ध में।
-रवीन्द्र
आइये अब आपको आज की पसंदीदा रचनाओं की ओर ले चलें-
इक दिन कड़ी धूप में मैंने
उसकी छाया जब माँगी तो
उसने उसकी कीमत चाही
मेरी कमियाँ मुझे गिनाईं !
मेरे पैरों के नीचे की,
धरती भी अब तो उसकी थी !!!
विकलता पर कर नियन्त्रण
पंछी दल चिन्तन करता है
सामर्थ्य हीन मानव
अपने दम पर कब पलता है
हम ढूंढे ठौर कोई
यह वही कदम धरता है
अब अपने
इसतरह होने का
क्या आशय बताऊँ
या क्षितिज पर
अटकी साँसों का
केवल संशय सुनाऊँ .....
डूब के जब उभरे तो देखा, सामने केवल
डूबता किनारा ही रहा। तुम क्षितिज
पे मेरा इन्तज़ार करना, मैं इक
मुठ्ठी उजाला हूँ, रात ढलते
बिखर जाऊँगा, रख
लेना मुझे अपने
पहलू में
अनुमान कर ही लेते हो
मेरे गहरे अवसादों की
और असीम वेदनाओं की
'पराबैंगनी किरणों' की ऊष्मा
और ... बावजूद
भौगोलिक दूरी के भी
अक़्सर सिक्त समानुभूति से
तुम्हारी बातों की 'ओज़ोन परतें'
छा कर मेरे वजूद पर
अन्नदाता का हृदय अब हारा,कावेरी को पुकारता मिला,
तीन पहर का खाना,वर्ष की तीन फ़सलों से नवाज़ा,
नसीब रूठा अब उनका,जर्जर काया है मेरी,
एक वर्ष की एक फ़सल में सिमटी मेहनत उनकी,
एक पहर की रोटी में बदली,
सीरत व सूरत और दिशा व दशा मेरी,
लिजलिजी विचारधारा के अधीन सिमटी मिली |
जबरन ब्याही गयी संग कोई और
पखेरूओं की फिक्र करे कोई और
सुलगती थी वो अब आराम से है
जल पड़ी जो अब बुझेगी कोई और
आँखें मलते हुए इस नन्हे की हथेलियों पर पहली-पहली कलियाँ आयीं हैं. जूही की कच्ची कलियाँ. गुलाबी रंग है इनका. अभी खिली नहीं हैं, अभी ठीक से मुस्कुराना भी नहीं सीखा है इन्होंने. बस कि आवाज देकर मुझे पुकारना सीखा है. मैं देर तक इन कलियों के करीब बैठी रही. जूही की इस बेल के बहाने मैंने खुद को ही तो रोपा था मिट्टी में, देखती हूँ जड़ें पकड़ ली हैं...जिदंगी का सफर चल पड़ा है. कलियों के खिलने में, खुशबू बिखरने में अभी वक़्त है लेकिन बिखरेगी जरूर.
हम-क़दम का विषय है-
सज़दा
आज बस यहीं तक
फिर मिलेंगे अगली प्रस्तुति में।
रवीन्द्र सिंह यादव
युगों से मनुष्य के अंतर्मन में भी एक परमाणुविक युद्ध चला आ रहा है,वह है असमानता का..
जवाब देंहटाएंकभी उसे रोकने के प्रयत्न में आदमी सफल होता है, तो कभी उसे धर्मयुद्ध अथवा क्रांति का नाम दे , बाह्यजगत में प्रगट किया जाता है..
परंतु युद्ध तय है..
हर प्राणी के अधिकार अथवा आत्मरक्षा के लिये..
यही प्रकृति का नियम है..
हम इससे भाग नहीं सकते है..?
सादर प्रणाम, आपकी प्रस्तुति कुछ अलग ही होती है।
जवाब देंहटाएंइक दिन कड़ी धूप में मैंने
उसकी छाया जब माँगी तो
उसने उसकी कीमत चाही
मेरी कमियाँ मुझे गिनाईं !
मेरे पैरों के नीचे की,
धरती भी अब तो उसकी थी !!!
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मीना दी, आपकी रचना " मानव जीवनदर्शन " है..
वह कविता ही क्या जिसमें सिर्फ शहनाई की गूंज हो, सिसकियाँ न हो.. सत्य का बोध न हो.. पूरे ब्लॉग जगत के लिये आपकी लेखनी किसी वरदान से कम नहीं है, प्रणाम..
बेहतरीन प्रस्तुति..
जवाब देंहटाएंउम्दा रचनाएँ..
सादर..
कहीं गूंगी गुड़िया बोल रही है तो कहीं विवशता को अनछुआ रखने की जदोजहद है.
जवाब देंहटाएंआज की हलचल में सब कुछ है प्रतिभा का उगना भी और हमारे ठौर के राहगीरों का दर्द भी... कर्तव्यहीन भूमि भी शामिल है तो कहीं ओजोन परत का साया सुहावना भी है.. शानदार.
आभार.
शानदार प्रस्तुतीकरण
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंबेहतरीन और विविधतापूर्ण प्रस्तुति रविन्द्र जी । मेरी रचना को इस संकलन में स्थान देने के लिए बहुत बहुत आभार ।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर प्रस्तुति, छोटी भुमिका में बड़ा ड़रावना स्तरीय छुपा है आने वाले कल का भयावह सत्य।
जवाब देंहटाएंसभी रचनाएं बहुत उम्दा।सभी रचनाकारों को बधाई।
बहुत ही सुन्दर हलचल का संकलन |भूमिका में दिखा वक़्त का डरावना चेहरा.... उम्मीद यही ऐसा कुछ न हो |सभी शानदार रचनाएँ, मुझे स्थान देने के लिए तहे दिल से आभार |
जवाब देंहटाएंसादर
आनंददायी सूत्रों के लिए हार्दिक आभार ।
जवाब देंहटाएंआदरणीय रवींद्रजी, मेरी रचना को पाँच लिंकों में स्थान देने हेतु सादर आभार। पिछले कुछ समय से मेरा लिखना बंद हो सा हो गया है। फेसबुक पर भी मेरी रचनाओं को शेयर करने पर रोक लगा दी जा रही है। ऐसा दो बार हुआ है, पता नहीं कैसे? प्रस्तुति में अपनी रचना देखकर अच्छा लगा।
जवाब देंहटाएंअन्य रचनाएँ भी सुंदर हैं। बहुत सारा धन्यवाद।
बहुत सुंदर संकलन
जवाब देंहटाएंसभी रचनाकारों को बधाई