आज नव वर्ष के प्रथम मास का अंतिम दिन...
मुझे तो ऐसा लग रहा है...
समय बीत नहीं भाग रहा है...
कल देश के बजट का दिन है...
...उमीद है...अच्छे दिनों की...
सब से पहले पढ़िये ये कहानी...
उसके बाद आज के लिंक...
किसी गांव में एक सेठ रहता था. उसका एक ही बेटा था, जो व्यापार के काम से परदेस गया हुआ था. सेठ की बहू एक दिन कुएँ पर पानी भरने गई. घड़ा जब भर गया तो उसे
उठाकर कुएँ के मुंडेर पर रख दिया और अपना हाथ-मुँह धोने लगी. तभी कहीं से चार राहगीर वहाँ आ पहुँचे. एक राहगीर बोला, “बहन, मैं बहुत प्यासा हूँ. क्या मुझे पानी
पिला दोगी?”
सेठ की बहू को पानी पिलाने में थोड़ी झिझक महसूस हुई, क्योंकि वह उस समय कम कपड़े पहने हुए थी. उसके पास लोटा या गिलास भी नहीं था जिससे वह पानी पिला देती.
इसी कारण वहाँ उन राहगीरों को पानी पिलाना उसे ठीक नहीं लगा.
बहू ने उससे पूछा, “आप कौन हैं?”
पूरी कहानी यहां पढ़ें...
शाम का सुनहला दामन
खंडहर हो गया वो घर
वीरान है वो गलियाँ
कोई नहीं आता गुलाबी दुप्पटा संभाले
बेचैन होकर छत पर
गली में नज़रें बचाकर कोई नहीं देखता
अब मुँडेर की तरफ़
बस शाम की ख़ूबसूरती अब भी वही है
तब और अब
है यह कैसा स्वभाव उसका
चंचल उसे बना गया
मनमानी वह करता
स्थिर कभी न हो पाता |
मोहन को धेनु चराते देखा
काली कमली ओढ़ कर
गौ धूलि बेला में
उन्हें धुल धूसरित आते देखा |
अग्नि-परीक्षा [कविता] - डॉ महेन्द्र भटनागर
इन गंदे इरादों से
नये युग की जवानी
तनिक भी होगी नहीं गुमराह।
चाहे रात काली और हो,
चाहे और भीषण हों चक्रवात-प्रहार,
पर, सद्भाव का: सहभाव का
ध्रुव-दीप / मणि-दीप
निष्कंप रह जलता रहेगा।
बीते दिनों तुमसे बिछड़े
आज भी बाक़ी है
इस दिल में
इक विशवास की
जीत की तरह .....
जो दर्द दिए तूने
तूने क़सर न छोड़ी थोड़े भी मारने में,
पर देख बेमुरव्वत हम फिर भी जी रहे हैं !
ऐतिहासिक चरित्रों से निकलती चिंगारी
इतिहासकार प्रो. इरफ़ान हबीब भी मानते है कि यह जायसी का काल्पनिक चरित्र है और इतिहास में इस नाम का कहीं जिक्र नहीं मिलता,फिर भी ऐतिहासिक या लोकमन में बसे
चरित्रों का चित्रण करते समय जनभावना का ख्याल रखा जाना जरूरी है.बेवजह इस तरह के चरित्रों को व्यावसायिकता की आड़ में, दर्शकों की रूचि के अनुसार ढालना या विवादों
में घसीटना सही नहीं है.
अहम् ...
समय की धूल आँधियों के साथ आई तो सही
पर निशान बनाने से पहले हवा के साथ फुर्र हो गई
पर जाने कब कौन से लम्हे पे सवार
अहम् की आंच ने
मन के नाज़ुक एहसास को कोयले सा जला दिया
आज बस इतना ही...
अब चलते-चलते...
इस अधकच्चे से घर के आँगन
में जाने क्यों इतना आश्वासन
पाता है यह मेरा टूटा मन
लगता है इन पिछले वर्षों में
सच्चे झूठे, खट्टे मीठे संघर्षों में
इस घर की छाया थी छूट गई अनजाने
जो अब झुक कर मेरे सिरहाने–
कहती है
“भटको बेबात कहीं!
लौटोगे अपनी हर यात्रा के बाद यहीं !”
धीरे धीरे उतरी शाम !
धन्यवाद।
शुभ प्रभात
जवाब देंहटाएंसुपरिचित अंदाज में
बेहतरीन रचनाओं का चयन
आभार
सादर
बहुत सुंदर प्रस्तुति.मुझे भी शामिल करने के लिए आभार.
जवाब देंहटाएंमेरी रचना शामिल करने के लिए बहुत-बहुत आभार आपका। बहुत अच्छी प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंसुन्दर हलचल प्रस्तुति ..
जवाब देंहटाएंउम्दा लिंक्स आज की सदा की तरह |मेरी रचना शामिल करने के लिए धन्यवाद |
जवाब देंहटाएंबहुत ख़ूब है आज की हलचल ... आभार मुझे भी शामिल करने का ...
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर लिंको का चयन
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