सोलह एक सत्रह
आज से नौ दिन बाद
एक राष्ट्रीय पर्व आने वाला है
दिन गुज़रते जा रहे हैं और
एक के बाद एक कील
हमारे ताबूत में ठुकती चली जा रही है अनवरत..
किसी फिल्म का एक डॉयलाग याद आ रहा है
जब ज़िन्दगी के दिन कम बचे होें तो डबल जीने का...
ये फिलासफी यहीं तक....
आगे बढ़ते हैं.....
दुश्चिंता.... साधना वैद
ज़िंदगी के टेढ़े मेढ़े रास्तों पर
अब तक चलती आई हूँ
तुम्हारा हाथ थामे !
कभी हाथों में संचित
चंद पाँखुरियाँ बिछा कर
आंसुओं का बोझ...मंजू मिश्रा
देखो...
तुम रोना मत
मेरे घर की दीवारें
कच्ची हैं
तुम्हारे आंसुओं का बोझ
ये सह नहीं पाएंगी
उस पार का जीवन... सुशील कुमार शर्मा
है शरीर का कोई विकल्प
या है निर्विकार आत्मा
है वहां भी सुख-दु:ख का संताप
या परम शांति की स्थापना।
आज का शीर्षक.......
ना थाने
जाते हैं
ना कोतवाल
को बुलाते हैं
सरकार से
शुरु होकर
सरकार के
हाथों
से लेकर
सरकार के
काम
करते करते
सरकारी
हो जाते हैं ।
मेरे व्यथित दिमाग ने एक गलती कर डाली है
सभी को सत्रह तारीख की सूचना दे दी हूँ
नज़रअंदाज कर दीजिएगा
इज़ा़ज़ मांगती है यशोदा
इस डांस को देख कर मन हलका कर लीजिए
बहुत सुन्दर हलचल प्रस्तुति और सकारात्मक ऊर्जा से भरा गीत प्रस्तुति हेतु धन्यवाद
जवाब देंहटाएंखूबसूरत सूत्र एवं सार्थक प्रस्तुति मेरी 'दुश्चिंता' को सम्मिलित करने के लिए आपका आभार यशोदा जी ! आप व्यथित क्यों हैं ? क्या हुआ है ? अनुचित न समझें तो आप मेरे साथ शेयर कर सकती हैं ! दुःख बाँँटने से कम हो जाता है ! और मुझसे बाँट कर यदि आपकी व्यथा कम होती है तो मुझे बहुत संतोष होगा ! प्लीज़ !
जवाब देंहटाएंउम्दा संकलन।
जवाब देंहटाएंपरमपिता से प्रार्थना है कि आपकी व्यथा दूर करे।
शुभकामनाएं।