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बुधवार, 3 दिसंबर 2025

4590..जस दृष्टि, तस सृष्टि..

 ।।प्रातःवंदन।।

और हर सुबह निकलती है

एक ताज़ी वैदिक भोर की तरह

पार करती है

सदियों के अन्तराल और आपात दूरियाँ

अपने उस अर्धांग तक पहुँचने के लिए

जिसके बार बार लौटने की कथाएँ

एक देह से लिपटी हैं..!!

कुंवर नारायण

सच हैं कि 

लौटने की कथाएँ एक देह से लिपटी है और इसी प्रकृति के संग संदेशात्मक सहअस्तित्व भाव के साथ नज़र डालें चुनिंदा लिंकों पर.

देखते रहो...

किस ओर चल रही है हवा देखते रहो।

किस वक़्त पे क्या क्या है हुआ देखते रहो। 


पाज़ेब पहन नाचती हैं सर पे बिजलियां,

आंखों के आगे काला धुंआ देखते रहो।

✨️

एक आवाज

 खो गयी एक आवाज शून्य अंधकार सी कही l

सूखे पत्ते टूटने कगार हरे पेड़ों डाली से कही ll

उलझी पगडण्डियों सा अकेला खड़ा मौन कही l

अजनबी थे लफ्ज़ उस अल्फाज़ मुरीद से कही ll

✨️

जस दृष्टि, तस सृष्टि !

धर्म सृष्टा हो समर्पित, कर्म ही सृष्टि हो,

नज़रों में रखिए मगर, दृष्टि अंतर्दृष्टि हो,

ऐब हमको बहुतेरे दिख जाएंगे दूसरों के, 

✨️

सुस्त कदम मेरे....

चलते चलते,....

रुक जाते ....

एक मोड पर ये 

थके थके, रुके रुके

अलसाए ...

✨️

।।इति शम।।

धन्यवाद 

पम्मी सिंह ' तृप्ति '..✍️

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