सादर अभिवादन।
गुरुवारीय अंक में पढ़िए पाँच रचनाएँ-
*****
अमानवीय छल-कपट से परिपूर्ण आधार।
समग्र संसार ग्रसित, कुंठित, कर रहा हाहाकार,
सहन नहीं कर सकते अब ओर यह अभिशाप।
मुक्ति मिले, शीघ्र ही जग में सभी को,
इतने पर भी वह बात नहीं बन पा रही थी,जिसके लिए मेरा जन्म हुआ था।मैंने अपने प्रतिद्वंदियों से भी मिलकर दुरभिसंधियाँ की।कई बार ‘ सम्मान’ काटे और कई बार बाँटे भी।सरकारी संस्थानों में अपने शिष्य बनाये।वे लेखक बने और मुझे आर्थिक लाभ भी मिला,पर आपकी शपथ, यह सब मैंने अपने लिए नहीं पत्रिका के लिए किया।यह सब करते हुए मैंने ऐसी प्रतिभाओं में कबीर को तलाशा (या तराशा?)।आप चिंता न करें,आपको कहीं नहीं खोजा क्योंकि आप तो शुरू से मुझमें ही बसे हैं।आप मेरे प्राण हैं।*****परसाई की विरासत-2
काफ़ी दिनों से तुम्हारा आभार प्रकट करना चाह रहा था।पर क्या करूँ,अब वह दृष्टि नहीं रही।तुम्हारे पास दूर दृष्टि है।पहले केवल ख़ास पक्षी के पास ही पाई जाती थी,पर अब वे भी विलुप्त हो गए।अच्छा है कि तुमने व्यंग्य में वह परंपरा क़ायम रखी है।पूरा साहित्य इससे अभिप्राणित होगा।तुम व्यंग्य के नए शाह हो।परिस्थिति से घबराओगे नहीं,यह जानता हूँ।कुत्ते भौंकते हैं,हाथी अपनी चाल चलते हैं।इस मुहावरे को अपनी रक्षा के लिए इस्तेमाल करना।साहित्य लेखक के काम नहीं आएगा तो किसके लिए आएगा?




वाह! बढ़िया प्रस्तुति!
जवाब देंहटाएंबेहद दिलचस्प। अभिनंदन।
जवाब देंहटाएं