वर्ष 2025 की नवा महीना,
घबराहट सी होती है ...
तीन माह बाद फिर से
पुराने पाठ दोहराने पड़ेंगे
सारे काम-काज पुराने जैसे
बदलेगा को मात्र नम्बर ...
2025 की जगह 2026
हो जाएगा....थोड़ी गई
अभी काफी है बाकी..
उड़ जाएंगे एक दिन.
तस्वीर से रंगों की तरह !
हम वक्त की टहनी पर.,
बैठे हैं परिंदों की तरह !!
चलिए देखते हैं नया क्या खास है...
हिटलर ने अपने आत्मकथा में कहा है कि
"30 वर्ष के कम उम्र के युवाओं के हाथ ताकत नहीं होनी चाहिए। वह नुकसान करेगा।"
इसी लिए आचार्य ओशो ने कहा है,
"क्रांति अक्सर असफल रही है। क्यों कि क्रांति भीड़ करती है।
और भीड़ के पास अपना दिमाग नहीं होता।"
एक बात है जब लोग रात में सफर करते या लंबा सफ़र करते तो साथ में एक मश्क में पानी भर ले कर चलते...मेरी सब से पुरानी याद है 1967-68 के आस पास की ..
हम लोगों ने अमृतसर से फ्रंटियर ट्रेन पकड़ी है, फर्स्ट क्लास के एक डिब्बे में हम सब एक साथ हैं...
मेरे पिता जी एक बहुत बढ़िया एल्यूमिनियम की फ्लॉस्क लाए थे ...जिस का ढक्कन भी
एल्यूमिनियम का होता था . एक चेन से बंधा हुआ ...बाहर एक मोटा सा फेल्ट
जैसा कपड़ा लगता होता था ...एक तो उस में पीने का पानी था और दूसरी
हमारे पास एक पानी की मश्क थी .. जिस में यही 1-2 लिटर पानी आता होती ...
जिसे मेरे पिता जी रस्सी से उस डिब्बे की खिड़की के साथ बांध रहे हैं,
ताकि हवा लगने से पानी ठंडा हो जाए.....
यह नज़ारा मेरी यादों की स्क्रीन पर यूं का यूं मानो फ्रीज़ हुआ पड़ा है ....
विदा के पल बेहद पीड़ा भरे भी होते हैं, तब भी कभी-कभी मन बावरा हो कर इसी की चाहत
करने लगता है। माया मोह के बन्धन में जकड़ा हुआ मन जैसे ही दुनियादारी की तन्द्रा से जाग्रत होता है,
इन नश्वर बन्धनों के सत्य के निकट पहुँचने लगता है, वह इन सब से विदा होने की चाहत में
जल बिन मीन सा छटपटा उठता है और चाहता है इन सब से विदाई!
वहां जो हमने दृश्य देखा वो बड़ा अद्भुत था। मुख्य द्वार से मंदिर लगभग ३०० मीटर की दूरी पर था जो एक गुफा से होकर जाता था। और उस गुफा में पानी भरा हुआ था। और पानी भी घुटनों तक नहीं, बल्कि गले तक। अब हम तो बिना किसी तयारी के आये थे लेकिन फिर भी हम दर्शनों के लिए नीचे उतरे। अपने पुत्र को मैंने कन्धों पर उठा लिया और धीरे धीरे मंदिर तक पहुंचे।
गुफा की दोनों प्राकृतिक दीवारों में छोटे-छोटे छेद थे जिसके अंदर मेढक वैगरह थे। हमें इस बात का भी डर था कि कहीं कोई सांप ना निकल जाये। मैं सच कहता हूँ, यदि वहां इतने भक्त नहीं होते और कोई मुझे अकेले उस जलकुंड में उतरने को कहता तो शायद मेरी हिम्मत नहीं होती। पर फिर भी हम किसी प्रकार मंदिर तक पहुंचे और भगवान नृसिंह के दर्शन किये।
आधी रात, उतार फेंकी है तमाम मुखौटे,
आईना में उभर चले हैं गहरे ज़ख्मों
के निशान, अनुबोध का अनुक्रम
है जारी अक्स ओ चेहरे के
दरमियान । सिलवटों
को संवारते हुए
देह करता
है नींद
का
आवाहन,
आज बस
सादर वंदन
बेहतरीन अंक
जवाब देंहटाएंआभार
वंदन
बहुत सुंदर अंक 🙏
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर रचना
जवाब देंहटाएंWelcome to my new post....
बहुत अच्छी हलचल प्रस्तुति
जवाब देंहटाएं
जवाब देंहटाएंउड़ जाएंगे एक दिन.
तस्वीर से रंगों की तरह !
हम वक्त की टहनी पर.,
बैठे हैं परिंदों की तरह !!
मेरे लेख को सम्मलित करने के लिए आभार।
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