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मंगलवार, 9 सितंबर 2025

4506....चेहरे पे नकाब या नकाब पे चेहरा

मंगलवारीय अंक में
आपसभी का स्नेहिल अभिवादन।
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भारतेंदु हरिश्चंद्र
का जन्म 9 सितंबर 1850 को  हुआ।
हिंदी साहित्य में अपने अल्प जीवन काल में जिस व्यक्ति के नाम पर एक युग की शुरुआत होती हैं वे थे भारतेंदु हरिश्चंद्र। उन्होंने अपने मात्र 35 वर्ष के जीवन काल में इतना लिख गए जितना लोगों को सैकड़ो वर्षों में भी लिखना मुश्किल था । यही कारण है कि उन्हें हिंदी साहित्य का पितामह कहा जाता है।

जिस समय उनका जन्म हुआ था देश परतंत्रता की बेड़ियों में जकड़ा हुआ था । ब्रिटिश अधिपत्य में लोग अंग्रेजी पढ़ना और समझना गौरव की बात समझते थे। हिंदी के प्रति रुझान कम था। लोग शरीर से कम मन से ज्यादा गुलाम थे ।इस विषय को हरिश्चंद्र ने गहराई के साथ समझा और अपनी लेखनी के माध्यम से विदेशी हुकूमत का पर्दा फास कर दिया।भारतेंदु जी दिव्य प्रतिभा के धनी थे। उनकी उदार प्रवृत्ति के कारण ही विद्वत जनों ने भारतेंदु कहा करते थे । वह एक उच्च कोटि के नाटककार थे।नाटक के अलावा उन्होंने कविता, निबंध आदि पर भी कार्य किया। उन्होंने मातृ भाषा को प्रमुखता दी है –

उन्होंने हिंदी साहित्य के सभी विधाओं पर अपनी लेखनी चलाई ।दोहा ,चौपाई ,छंद बर्वे, हरिगीतिका ,कवित्त एवं सवैया आदि पर उन्होंने काम किया। लगता है उन्होंने अपने जीवन काल में दूसरा कोई कार्य नहीं किया ।मात्र 35 वर्ष की अल्प आयु में 72 ग्रंथों की रचना कर दिया। सुमित्रानंदन पंत जी उनके बारे में कहते हैं —

भारतेंदु कर गए,
भारती की वीणा निर्माण।
किया अमर स्पर्शों में ,
जिसका बहुविध स्वर संधान।।

आज की रचनाएँ-
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एक आवारा नदी से बह रहे थे दूर तक,
वक़्त के बदलाव में तालाब हम घट के हुए.

उगते सूरज को हमेशा साथ रखते हैं सभी,
हम हैं ढलती शाम जैसे धूप से पटके हुए.

नाप में छोटा बड़ा होना लिखा तक़दीर में,
हम क़मीज़ों से हैं अक्सर शैल्फ़ में लटके हुए.





हैरान-परेशान, कब से बैठी हूँ मैं भी
बाहर मुंडेरी पर इंतज़ार में-
आए, पहने ये फुँदने वाले
रंग-बिरंगे झालरदार झबले,
लगाए कोई मनपसंद मुखौटा
और चल पड़े उँगली थाम
हाट में हठीला बच्चा बनकर…




थक कर हार गये सारे जुगनू अंधेरों से,
सूरज का वादा करके चिंगारी भी ना दिखा सके

देर रात तक सोचता रहा मैं ख्यालो में,
मिटा दिया चिरागों को जब उजालो से ना लड़ सके ,





सूरत पूजन दिल बैठा।
ये अब काफ़र लगता हैं।।

मह-रुख़ जब छत पर निकले।
बदला मंज़र लगता है।।

दिल की बस्ती गुलशन है।
बाहर बंजर लगता हैं।।




कमरे मे एकांत वास हो जाते थे जो घंटों तक
हमसे दूरी क्या बड़ी सबको समय बार बार दे रहे हैं

चेहरे पे नकाब है या नक़ाब मे चेहरा
लगता है ऐसे लोगों को तवज्जो हम भी बेकार दे रहे हैं


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आज के लिए इतना ही 
मिलते हैं अगले अंक में।

5 टिप्‍पणियां:

  1. शत शत नमन
    भारतेन्दु जी को
    लाजवाब अंक
    आभार
    सादर

    जवाब देंहटाएं
  2. बहुत सुंदर अंक 🙏आज के इस बेहतरीन अंक में मेरी रचना को शामिल करने के लिए बहुत बहुत आभार और धन्यवाद 🙏

    जवाब देंहटाएं
  3. बेहतरीन अंक में मेरी रचना शामिल करने के लिए बहुत शुक्रिया. सभी रचनाकारों को बधाई 😊🙏🌹

    जवाब देंहटाएं
  4. सुंदर अंक
    भारतेंदु हरिश्चंद्र जी पर दी गई जानकारी काफ़ी रोचक है
    आभार

    जवाब देंहटाएं
  5. सुंदर चर्चा … आभार मेरी ग़ज़ल को जगह देने के लिए

    जवाब देंहटाएं

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