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धर्म हो या अधर्म,
कोई भी विचार जब तक स्वविवेक से
न उत्पन्न हुआ हो, तबतक धूलकणों की आँधी मात्र होती है
जिसमें कुछ भी सुस्पष्ट नहीं होता है।
उधार का ज्ञान किसी भी विषय के अज्ञान को ढक
सकता है समाप्त नहीं कर सकता।
अंधश्रद्धा, कल्पना,आडंबर और ढोंंग का
आवरण जब कठोर हो जाता है तो आत्मा की कोमलता और
लचीलेपन को सोखकर पूरी तरह अमानुषिक और कट्टर
बना देता है और अगर धर्म की "कट्टरता"
मानवता से बड़ी हो जाती है तो
उस व्यक्ति के लिए परिवार, समाज या देश से
बढ़कर स्व का अहं हो जाता है और वह
लोककल्याण,परोपकार जैसे मानवीय गुण को अनदेखा कर,
अपने लोग,अपनी जाति का चश्मा पहनकर सबकुछ देखने
लगता है। धर्म का अधकचरा ज्ञान
ऐसे विचार जिसमें उदारता न हो, उसमें हम अपनी आत्मा की नहीं, छद्म ज्ञानियों के उपदेश से प्रभावित होकर
उनके स्वार्थपूर्ति का साधन मात्र रह जाते हैं।
काश कि हम समझ पाते कि हम अन्य मनुष्यों की भाँति ही एक मनुष्य सबसे पहले हैं,
किसी भी जाति या धर्म के अंश उसके बाद।
धूल जो मुझमें है,
मुझे ही साफ करनी है,
यह जहां है,
कोई पहुँच नहीं सकता वहाँ
मेरे सिवा,
पर मैं जानता हूँ
कि वहाँ पहुँच गया,
तो उसे हटा भी दूँगा,
कोई धूल कितनी भी
ज़िद्दी क्यों न हो,
आंखों में लाल डोरे
धुंआ- धुंआ रात में
हैरान देख हर जगह
ड्योढ़ी,छत,झरोखों में
लिए पूजा का थाल
निर्जल व्रत-उपवासी
माँ ओढ़े ओढ़नी
लगा कर टकटकी
करती इंतज़ार..
कब आएगा चाँद ..
मिलते हैं अगले अंक में।
धूल जो मुझमें है,
जवाब देंहटाएंमुझे ही साफ करनी है,
शानदार अंक
वंदन
सुंदर संकलन। मेरी पोस्ट को स्थान देने के लिए आभार।
जवाब देंहटाएंशानदार अंक!
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