शीर्षक पंक्ति: आदरणीया डॉ.(सुश्री) शरद सिंह जी की रचना से।
गुरुवारीय अंक में आज पढ़िए चुनिंदा पाँच
रचनाएँ-
बुंदेली ग़ज़ल | उन्ने कई थी | डॉ (सुश्री) शरद सिंह
ये कैसी
अनजानी सी पीड़ा है
कि पहाड़
पर बारिश से बजती टीन की छत भी जैसे
किसी
अनदेखे को पुकारती लगती है
मेरे लिए
कोई है क्या इस दुनिया में
जो यूं
बारिश को आत्मा से महसूस करता होगा...
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गर्मियों में एक
दिन रात में छत पर सोते हुए साफ़ आकाश में जहाँ असंख्य तारों की झिलमिलाहट थी
हल्के से बादलों की लकीर की तरफ अंगुली से इशारा करते हुए माँ ने कहा-
“देख! आकाश गंगा!”
“अच्छा जी! आपकी
किताबों में आकाश गंगा भी होती हैं?”
मेरी बात को
अनसुना करते हुए उन्होंने कहा-
“उधर देख! वो
सप्तऋषि मण्डल और वो ध्रुव तारा।”
-“अच्छा तो यह बीच
का हिस्सा जहाँ तारे नहीं दिखायी दे रहे “ब्लैकहॉल” है। मैंने आँखों
से दिखाई देने वाले उस छोटे से आकाश के हिस्से में मानो पूरे अन्तरिक्ष को नापने
की ठान ली थी।”
*****
*****
अपने नाम के साथ तुम्हें
बांध नहीं पाया,
हाँ मालूम है तुम्हें बंधना
पसंद नहीं।
तुम्हारी ज़ुल्फ़ें
तुम्हारी ही तरह आज़ाद है,
बस उन ज़ुल्फ़ों में खुद को
उलझा नहीं पाया तो क्या हुआ!
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फिर मिलेंगे।
रवीन्द्र सिंह यादव
शानदार अंक
जवाब देंहटाएंआभार
सादर वंदन
बेहतरीन रचना संकलन एवं प्रस्तुति आदरणीय 🙏
जवाब देंहटाएंवाकई सभी रचनाएँ बेहतरीन है...
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर सूत्रों से सुसज्जित बहुत सुन्दर संकलन ।
जवाब देंहटाएंसंकलन में मेरे सृजन को सम्मिलित करने के लिए हृदयतल से सादर आभार आदरणीय रवीन्द्र सिंह जी ।