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शुक्रवार, 30 अगस्त 2024

4232...सोचा न था....

शुक्रवारीय अंक में
आप सभी का स्नेहिल अभिवादन।
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जी क्षमा कीजियेगा, यह शब्द "हौसला" 
किसी भी ऐसे मनुष्य के लिए  नहीं
 जो जबरन खुद को अंधेरे में रखना चाहते हो, 
सब समझते हुये अवसाद भोगते हों, 
जान बूझकर वैराग का चोला पहनना चाहते होंं।
 प्रेम के नाम पर किये गये छल को भूलने के 
बजाय व्यथित होते होंं, 
जीवन का हर क्षण स्वयं की मनोव्यथा का अवलोकन करके नकारात्मक ऊर्जा संग्रहित करते हों, 
 आँखों पर  काली पट्टी चढ़ाकर कहते हो कि कहाँ है आशा की किरणें 
सब ओर बस कालिमा ही है।
 ऐसे व्यक्ति में 
नकारात्मकता का हौसला बुलंद होता है 
और ये आजीवन भाग्य को कोसते हुये 
बहुमूल्य जीवन के बेशकीमती मोतियों को 
पत्थर समझकर 
समय की दरिया में बहा देते हैं। 

"हौसला" शब्द  उन मासूम बच्चों के लिए है 
जो जीना चाहते है, 
पर जीवन के चक्रव्यूह में गुम होने के डर से 
मुसीबतों को देख आँख मींच लेते हैं 
उनके अंदर आशा का संचार करने के लिए यह बतलाने 
के लिए कि जीवन चाहे कैसा भी हो 
उसे जीने का "हौसला" होना ही 
चाहिए न कि परिस्थितियों से घबराकर, भगोड़ा बनकर जीवन का कीमती पल नष्ट करना चाहिए। 

 मनुष्य के जीवन में चाहे कितना भी बुरा समय हो, विषमताओं से लड़ने का,संघर्ष करने का, सकारात्मक रहने का मन में उपजा दृढ़ भाव ही हौसला या हिम्मत कहलाता है। 

आज की रचनाएँ-


आज भी छत पर 
फूल खिला है गेंदे का 
आज भी छत पर 
फूल खिला है गुड़हल का 
आज भी श्यामा-तुलसी 
भीनी महक रही 
आज भी छत पर 
गौरैया है चहक रही 
सिर्फ़ नहीं हो तुम 
तो है सूनी पूरी छत 
"बेटू", "बहना" सुनने को 
हैं कान तरसते 
वो धड़कन हैं कहां ? 
कि जिनमें
मेरे प्राण थे बसते ।




कुछ अपने शोक संवेदना में 
कुछ शब्द लिखेंगे 
कुछ नमन, विनम्र श्रद्धांजलि
लिखकर अपनी 
औपचारिकता पूर्ण करेंगे 
कुछ अपने रो-धो लेंगे 
कुछ दिन 
 
सोचता हूं 
क्या कोई मेरे लिए उदास होगा 
कोई मुझे, मेरे बाद 
मुझे याद करेगा




मेरे बच्चे!
ईश्वर है
वह सभी की पुकार सुनता है
जैसे 
एक बहरा सुनता है संगीत
वह देखता है
सभी के क्रिया-कलाप  
जैसे 
एक अंधा देखता है सृष्टि


सदियों पुरानी संस्कृति हमारी 
ऋषि मुनियों की पावन भूमि 
भरा ज्ञान का यहाँ भंडार है 
बसती भारत में अपनी जान है 
अभिमान नहीं स्वाभिमान है मेरा 



जड़ें 
हार नहीं मानतीं 
न मिट्टी से, न पत्थर से, न ईंटों से। 
जड़ें अपना रास्ता 
ढूंढती नहीं 
बना लेती हैं 



आपको जान कर आश्चर्य होगा कि उस समय के अमेरिका में भी लोगों की यही मानसिकता थी कि औरतों को केवल घर सम्हालना चाहिए ! उन्हें बाहर जाकर काम करने की कोई ज़रुरत नहीं है ! क्या हम भारतीयों की मानसिकता से मिलती जुलती नहीं लगी आपको भी यह बात ? मैंने जब वहाँ पत्थर पर इसे खुदा हुआ देखा तो मुझे भी बहुत हैरानी हुई थी ! लेकिन जब जीवन में ऐसी कठिन परिस्थितियाँ आ जाएँ तो घर परिवार चलाने के लिए स्त्रियों को भी बाहर तो निकलना ही पड़ेगा ! भारत हो या अमेरिका ! यह भी एक निर्मम यथार्थ है !

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आप सभी का आभार
आज के लिए इतना ही
मिलते हैं अगले अंक में ।
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5 टिप्‍पणियां:

  1. सार्थक सूत्रों से सजी हुई आज की हलचल ! मेरे आलेख को सम्मिलित किया आपकी हृदय से आभारी हूँ श्वेता जी ! सप्रेम वन्दे !

    जवाब देंहटाएं
  2. सुंदर भूमिका के साथ बहुत सुंदर प्रस्तुति।
    रचना को स्थान देने हेतु हार्दिक आभार।
    सादर

    जवाब देंहटाएं
  3. शानदार भूमिका के साथ ,बेहतरीन अंक प्रिय श्वेता

    जवाब देंहटाएं

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