निवेदन।


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शुक्रवार, 21 जून 2024

4163...गुड़ खाए गुलगुले से परहेज

 शुक्रवारीय अंक में

आप सभी का स्नेहिल अभिवादन।
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व्यायामात् लभते स्वास्थ्यं दीर्घायुष्यं बलं सुखं। 
आरोग्यं परमं भाग्यं स्वास्थ्यं सर्वार्थसाधनम्॥
अर्थात्
"व्यायाम से स्वास्थ्य, लम्बी आयु, बल और सुख की प्राप्ति होती है। निरोगी होना परम भाग्य है और स्वास्थ्य से अन्य सभी कार्य सिद्ध होते हैं।"
कहते हैं" स्वस्थ तन में स्वस्थ मन का वास होता है।"

"स्वास्थ्य सबसे बेशकीमती संपत्ति है।"

योग इन सभी शब्दांशों का निचोड़ है।
योग का अर्थ है जुड़ना। मन को वश में करना और वृत्तियों से मुक्त होना योग है।

आप अपने शरीर और मन को स्वस्थ रखने के लिए
क्या करते है?
आप भी योग करते हैं क्या?
बात जब भी सेहत को  चुस्त-दुरुस्त रखने की हो तो निःसंदेह व्यायाम की श्रेणी के अंतर्गत प्राथमिक सूची में "योग" का नाम सबसे पहले लिया जाता है।
चमत्कारिक योग
मन,मस्तिष्क, आत्मा और शरीर में संतुलन बनाये रखने में सहायक होता है।
योग न केवल शारीरिक वरन् अनेक मानसिक व्याधियों से मुक्त कर जीवन में सकारात्मक ऊर्जा के का प्रवाह करने में सहायक है।
आधुनिक अत्यधिक व्यस्तम् और तनाव भरे  जीवन शैली में तो योग के प्रभावशाली
परिणाम दृष्टिगत हुये है।

आज की रचनाएँ
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जिंदगी हमें आजमा रही थी, परख रही.. छोटी बहन अपने काम के सिलसिले में अमेरिका गई..20 दिन बाद जब लौटी तो महज एक छोटी सा लाल दाना जो तीन, चार दिन पहले ही उभर आया था उसे दिखाने डॉ के पास गई। पर...जो न सुनना था वहीं डॉ ने बोला..कैंसर है..जल्द ही इलाज शुरू करें।
खैर इलाज भी शुरू हो गया पर अपने कामकाज  के प्रति गंभीर  बिमारी के वज़ह से भीणकभी भी कमजोर नहीं हुई। हास्पिटल भी मीटिंग ऐटेड  कर के गई। मानो उपर वाले ने परखने की लकीरें बड़ी गहरी बनाई हो।


क्या कहते हैं पेड़


काट के मुझे
बन जाएगा सोफा
या एक कुर्सी
 
जिन पे बैठ
कर लेना बातें या
मिजाजपुर्सी



गुम हो के रहती थी वो अक्सर
गणित की कक्षा से
इसीलिए तो आज भी नफा नुकसान में
अधिकतर उठाया उसने नुकसान ही

एक दफे हुई थी वो जवानी में
जब गुम तब बस्ती में उसका नाम कम

और उसके नाम के आगे बदचलनी के
सर्वनाम अधिक जोडे़ गए थे



दिसम्बर का महीना था, कोरोना का आतंक कम हुआ था लेकिन अकेले रहने की आदत पड़ चुकी थी। एक दिन बाहर घना कोहरा था और सुबह से लोकल फाल्ट के कारण बिजली कटी हुई थी। पड़ोसी परेशान होकर सामने बरामदे में टहल रहा था। उसका परिवार बड़ा था और कई किराएदार थे। सुबह से बड़बड़ा रहा था ... भोर में पानी नहीं चलाए, पता नहीं बिजली कब आएगी! लेकिन हम मस्त थे। हमको सिर्फ एक बाल्टी पानी चाहिए थी । स्व0 नीरज याद आ रहे थे ....जितनी भारी गठरी होगी, उतना तू हैरान रहेगा!



“बिलकुल! लेकिन जो जीभ को रुचता है वह पेट को नहीं जँचता है। रूचना, पचना, जुड़ना-एक साथ नहीं होता है! जानते हो मेरे एक परिचित हैं। बैंगन की सब्ज़ी को चलाये छोलनी से अगर चावल या अन्य दूसरी सब्जी चला दिया जाये तो वे उस चावल या अन्य दूसरी सब्जी नहीं खा सकते हैं…! बैंगन की सब्जी तो नहीं ही खाते हैं। किसी भी सब्जी में टमाटर पड़ जाये तो सब्जी नहीं खाते हैं। आज के दौर में किसी होटल की किसी तरह की सब्जी उनके घर के लोगों का साथ नहीं दे सकते हैं। शायद स्वाद अच्छे नहीं लगते हों या स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से…! लेकिन-लेकिन सिर्फ बैंगन का चोखा, बैंगन-आलू-टमाटर का मिश्रित चोखा, टमाटर की मीठी चटनी बड़े शौक़ से चाट-चाट /चाट-पोंछकर खाते हैं…! 

गुड़ खाए गुलगुले से परहेज करें!


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आज के लिए इतना ही
मिलते हैं अगले अंक में ।
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गुरुवार, 20 जून 2024

4162...तुम एम० एफ़० हुसेन जैसे किसी पेंटर के रेट पर बाल डाई करते हो क्या?’

शीर्षक पंक्ति:प्रोफ़ेसर गोपेश मोहन जैसवाल जी की रचना से। 

सादर अभिवादन। 

गुरुवारीय अंक आज प्रस्तुत हैं पाँच पसंदीदा रचनाएँ-

शपथ-ग्रहण से पूर्व केश-कर्तन

इक़बाल हुसेन ! तुम एम० एफ़० हुसेन जैसे किसी पेंटर के रेट पर बाल डाई करते हो क्या?’

इक़बाल हुसेन के पास तो ऑफ़र्स का पुलिंदा था. इस बार उन्होंने एक और दिलकश ऑफ़र दिया –

अंकल जी, चम्पी तेलमालिश करवा लीजिए. आपको वो गाना तो याद ही होगा –

सर जो तेरा चकराए या दिल डूबा जाए - - -

जॉनी वॉकर से अच्छी चम्पी तेल मालिश न करूं तो आप एक पैसा भी मत दीजिएगा.

*****

आप हमेशा गलतियां करते हैं

कभी बोलकर 

कभी चुप रहकर 

कभी कह कर 

कभी न कहकर 

कभी छुप कर 

*****

भावनाएँ

मरुस्थल में पौधा सींचने 

दौड़ती हुई आती हैं 

कहती हैं-

“तुम्हारे घर के बंद किवाड़ देखकर भान होता है 

अस्त होता सूरज नहीं! हम तुम्हें डंकती हैं!!”

*****

कविता

नीर क्षीर
ध्वस्त जागीर
निर्बल राह 
प्रबल प्रवाह
ठोकर में धन 
सबल है मन
जादू की पुड़िया

निर्धन की दुनिया
*****

चौंक: लघुकथा

 तुमने पंखे से नज़र हटाये बगैर दुपट्टे की कोर से चश्मा साफ कर अपनी आँखो पर रख लिया. मैंने पास रखे जग से गिलास में पानी डालकर तुम्हें दिया. तुम गटागट पी गये. जैसे मेरे पानी देने का इंतजार ही कर रहे थे. मुझे अच्छा लगा. समझ आ गया कि वो चौंक नहीं तुम्हारे नाम की हिचकी थी जो मुझे यहाँ तक ले आयी. मैंने तुम्हारे बालों में हाथ फेरते हुए कहा, रात बहुत हो गयी है सो जाओ. तुमने पंखे से नज़र हटाये बिना ही कहा, तुम आ गयी हो अब सोना ही किसे है. इतना सुनते ही मेरे अंदर का डोपामाइन दोगुना हो गया.*****

फिर मिलेंगे। 

रवीन्द्र सिंह यादव  

बुधवार, 19 जून 2024

4161...ख्वाब और हकीकत..

 ।।प्रातःवंदन।।

"एक किरण आई छाई,

दुनिया में ज्योति निराली

रंगी सुनहरे रंग में

पत्ती-पत्ती डाली डाली !


एक किरण आई लाई,

पूरब में सुखद सवेरा

हुई दिशाएं लाल

लाल हो गया धरा का घेरा !"

सोहनलाल द्विवेदी  

  आज की पेशकश में शामिल ...मुस्कुराहटों के बीज✍️

 जो होते मेरे पास

सूरजमुखी के फूल जैसे

 मुस्कुराहटों के बीज

तो मैं बो लेती

 उन्हें संभालकर

अपने मन की पोली..

✨️

चार द्वार

अयोध्या में व्याप्त शांति और शांत चित्तता के मध्य 

कुंवर राम ने देखे थे निशान दुख के जन मानस में,

सोचते थे राम :

हम आत्मदेश के वासी हैं 


भीतर एक ज्योति जलती है 

जो तूफ़ानों में भी अकंप, 

तन थकता जब मन सो जाता

जगा रहता..

✨️

परीक्षाओं की धांधली से डूबता युवाओं का भविष्य

परीक्षाओं में धांधली इस समय चरम पर है. वैसे ऐसा कभी नहीं रहा है जब परीक्षाओं में और उनके परिणामों में धांधली न की गई हो. बस इतना है कि कॉंग्रेस पार्टी द्वारा आरटीआई कानून लाने के बाद से परीक्षार्थियों को इन धांधलियों को..

✨️

जो ख्वाब थे वही.



जो ख्वाब थे वही हक़ीक़त थी,

साथ तुम जहाँ तक थी,वही तक थी...

तमाम उम्र अब यूँही घुटके मरना हैं,

किसीसे कह नही सकते क्या शिकायत थी,..

।।इति शम।।

धन्यवाद 

पम्मी सिंह ' तृप्ति '...✍️

मंगलवार, 18 जून 2024

4160...पेड़ तो स्वयं उगते हैं...

 मंगलवारीय अंक में
आपसभी का स्नेहिल अभिवादन।
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जलती धरती ,जलता आसमान,सूखते कंठ,पसीने से लथ-पथ आकुल तन,गर्म थपेड़ों से बेहाल जीव-जन्तु, मुट्ठीभर घने पेड़ों की सिकुड़ी छाया में सुस्ताते परिंदें, पीने की पानी के लिए लंबी कतारें,
उफ़ गर्मी,हाय गर्मी
जल संकट इन दिनों सबसे भयावह दृश्य उत्पन्न कर रहे हैंं।
देशभर से मिलने वाले समाचार और तस्वीरों की माने तो आने वाले सालों में पेयजल की समस्या का कोई हल न निकला तो बूँद-बूँद पानी के लिए युद्ध जैसी स्थिति उत्पन्न हो जायेगी।
जेठ के महीने में मानसून दस्तक दे जाती है।
सबकी आँखें सूखे आसमान पर लगी है।

उसिन-उसिन कर पछिम से जब
धनक धरित्री जलती है
कनक कुरिल कंटक किरणों से
हिम की चादर गलती है
द्रूम लता झुलसाती है
तब तपिश जेठ जलाती है।

आज की रचनाएँ
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पेड़ तो स्वयं उगते हैं 
सजते-सँवरते हैं वन-उपवन होकर 
कुदृष्टि आदमी की उजाड़ती है वृक्ष 
अति भौतिकता का दास होकर
उजड़ते वन बसती बस्तियाँ 
बढ़ता वातावरण का तापमान 
जीवन के लिए ख़तरा



इतना बड़ा मदारी देखा कभी किसी ने
बे-कैद़ होने ख़ातिर क्या क्या नहीं वो खाया
भारी पड़ेगी तुम को थोड़ी सी भी मुरव्वत
बंदर का खेल उसने सबको बहुत दिखाया




कोई कसर कमी ना थी इशारों के इन इश्क इकरार इजहार में l
पहेली उलझी थी हिरनी के लंबे गुँथे बालों के सुहाने किरदार में ll
कच्ची डोरी ऊँची आसमाँ बादलों उड़ती रंगीन पतंगबाजी की l
बिन स्याही बेतरतीब लकीरें लिखी जुबानी खोये लफ्ज़ किनारों की ll




वे टूटते नहीं 
हवा, पानी या 
घाम से 
बल्कि बोझ के साथ
होते जाते हैं 
और अधिक पक्के ।

पिता के कंधे
बोझ से झुकते नहीं 
बल्कि और तन कर
हो जाते हैं खरे। 



एक तो रूढ़िवादिता का युग और दूसरे भैया की सोच : एक तो करेला दूजे नीम चढ़ा : करेला से याद आया, जब मेरी माँ-पापा की शादी हुई थी तो माँ को करेला बिलकुल ही पसन्द नहीं था और मेरे पापा को करेला बेहद पसन्द था। मेरी माँ का करेला खाना शुरू करना स्त्री विमर्श का मुद्दा हो सकता था? काश! हम तब स्त्री विमर्श समझने का मादा रखते। मेरा बेटा जब छोटा था तब उसे भी करेला खाना पसंद नहीं था। अरे! उसे तो भिंडी छोड़कर कुछ भी खाना पसंद नहीं था! संयुक्त परिवार था, मीठी से ज़्यादा कड़वी बातें पचानी पड़ती थी! मेरा बेटा थोड़ा बड़ा हुआ तो भरवा करेला खाने लगा…


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आज के लिए बस इतना ही
मिलते हैं अगले अंक में।
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सोमवार, 17 जून 2024

4159 ..शराबी है तो क्या हुआ मांँ की तरह मैं भी झेल लूंगी

 


सादर अभिवादन

कल पिता दिवस निपट गया
बिलकुल ठीक
पिछले वर्ष के मानिंद

आज के अंक मे एक अलक पढ़िए
रहने दो न पापा


 रचनाएँ कुछ सनातनी
डरती हूं ज्यादा सनातनी  लिखने से
तनातनी न हो जाए  ....




मैं सुनता था
कांच के चटकने जैसी
ओस के टपकने जैसी
शाखाओं के टूटने जैसी
काले बादलों के बीच में से निकलकर
बरसती बूंदों जैसी
इन क्षणों में पिता
व्यक्ति नहीं
समुंदर बन जाते थे




माँ तुम नदी सदानीरा हो
कभी न सोती हो,
गोमुख से गंगासागर तक
सपने बोती हो,
जहाँ कहीं बंजर धरती हो
माँ तुम फूल खिलाना.





आसार तलातुम के!
मुरझा ना जाएँ

ये फूल तबस्सुम के।

*******

कैसी दुश्वार घड़ी
घर के आँगन में

ऊँची दीवार खड़ी!




सच कहूं तो
तुम मेरी पहुंच से बहुत दूर हो
मैं एक आम सा‌ किरदार हूं
तुम ख़ास सी शख्सियत हो
मैं गली के अगले मोड़ पर
खत्म होती कहानी हूं




संतप्त हृदय बैठा चिड़ा था
चिड़ी भी थी मौन विकल
निज शौक के लिए उड़ चला
संतान जो था खूब सरल‌।
उसके पतन में था नहीं
मेरा जरा भी योगदान
स्वछंद तथा स्वाधीन था
सुख स्वप्न का उसका जहान।




कोई पीछे खड़ा हँस रहा
जीवन रहे बुलाता हर पल,
रंग-बिरंगी इस दुनिया की
याद दिलाती है हर हलचल !  

कितना गहरे और उतरना
अभी सफ़र बाकी है कितना,
जहां पुष्प प्रकाश के खिलते
जहाँ बसा अपनों से अपना !




कोई बात नहीं पापा! अपने कमरे से निकलते हुए मिनी ने कहा -शराबी है तो क्या हुआ मांँ की तरह मैं भी झेल लूंगी उसका गुस्सा-अत्याचार,अपमान-अवहेलना, दुत्कार-फटकार ।आपकी तरह नशे में द्यूत होकर गालियाँ देगा ,मारेगा, पिटेगा।पैसे-गहने छीन लेगा बस यही न।मेरा जीवन नर्क हो जाएगा तो तुम मुझे देखकर दुखी रहना।जैसे नाना -नानी माँ को देखकर.......


आज बस
कल फिर मैं ही
सादर वंदन

रविवार, 16 जून 2024

4158 ..वो पिता हैं, जिन्हें बच्चे तब समझते हैं

 सादर अभिवादन

वो पिता हैं, जिन्हें बच्चे तब समझते हैं
जब वे स्वयं अभिभावक बन जाते हैं
******
पिता किसी बच्चे के जीवन में
सूरज की तरह होते हैं जो भोर की 
कोमल किरणों की तरह 
स्नेह से माथा चूमकर हाथ पकड़कर जीवन के कोलाहल से परिचित करवाते हैं। 
दोपहर की तीक्ष्ण धूप की तरह हर 
परिस्थिति में कर्मपथ पर 
तपकर कठोर बनकर जुझारू और संघर्षरत रहना सिखलाते हैं और शाम होते ही 
दिन-भर इकट्ठा किये गये सुख की शीतल छाँव में छोड़कर पथप्रदर्शक सितारा बन जाते हैं। 
समुंदर की तरह विशाल हृदय पिता जीवनभर सुख-दुःख की लहरों को बाँधते हैं लय में, 
रेत बनी अपनी आकांक्षाओं को छूकर बार-बार लौट जाते हैं अपनी सीमाओं में, 
अपने सीने की गहराइयों में ज़ज़्ब कर खारापन पोषते हैं अनमोल रत्न।

सागर-सा मुझको लगे, पिता आपका प्यार।
ऊपर बेशक खार सा, अंदर रतन हजार॥

 रचनाएँ कुछ सनातनी ....



देखों ये वाणी अब तक विद्यमान है तो इसलिए कि इसमें कठोरता नहीं और ये दांत पीछे आकर पहले समाप्त हो गए तो इसलिए कि ये बहुत कठोर हैं। इन्हें अपनी कठोरता पे अभिमान था। यह कठोरता ही इनकी समाप्ति का कारण बनी। इसलिए यदि देर तक जीना चाहते हो तो नर्म बनो, कठोर नहीं। संस्कृत के नीतिकारों ने तो कहा है कि ये हमारी जीभ रूपी गाय हमेशा ही दूसरे के मान की हरी भरी खेती करने को सदा लालायित रहती है, अतः इसे खूंटे से बांध कर रखो।

****
ये भी नहीं
आज के दिन ही कुछ अच्छा सोच लेता
डर भी नहीं रहा कि

पिताजी पितृ दिवस के दिन ही नाराज हो जायेंगे।
*****



'लू' अर्थात गरमी के दिनों में चलने वाली तेज गरम या तपी हुई हवा की लपट। गरमी के दिनों में हम लू चलना, लू लगना, लू मारना आदि अभिव्यक्तियों  बहुत प्रयोग करते हैं । केवल एक अक्षर और एक मात्रा वाला 'लू' शब्द अनूठा भी है और रहस्यात्मक भी -- क्योंकि कोई नहीं जानता कि 'लू' शब्द कहाँ से आया

उपरोक्त रचनाएं
आज - कल की लिक्खी हुई है
अब पढ़िए फादर्स डे पर जूनी पर लाजवाब रचनाएं
****
पिता एक उम्मीद है, एक आस है
परिवार की हिम्मत और विश्वास है,
बाहर से सख्त अंदर से नर्म है
उसके दिल में दफन कई मर्म हैं।
*****



जग सरवर स्नेह की बूँदें
भर अंजुरी कैसे पी पाती
बिन " पापा " पीयूष घट  आप
सरित लहर में खोती जाती
प्लावित तट पर बिना पात्र के
मैं प्यासी रह जाती!


मन-अंगार..अमित निश्छल
मुँह फेर लिया फिर आज चाँद
फिर भी मैं तुझे बुलाता हूँ,
कातर नयनों से उबल रहे
मनोभावों को ठहराता हूँ;
चाहो, तो लो अग्निपरीक्षा

ऊपर भी पिता...और नीचे भी पिता
पिता नहीं होते तो हम होते ही नहीं...

भाई अमित जी का उनसे ही ब्लॉग गलती से हट गया
*******



‘उलूक’
मजबूर है तू भी
आदत से अपनी
अच्छी बातों में भी
तुझे छेद हजारों
नजर आ जायेंगे

ये भी नहीं
आज के दिन ही
कुछ अच्छा
सोच लेता



******

पिता संघर्ष की आंधियों में हौसलों की दीवार है
परेशानियों से लड़ने को दो धारी तलवार है,
बचपन में खुश करने वाला खिलौना है
नींद लगे तो पेट पर सुलाने वाला बिछौना है।

और अंत में ...

पिता क्या है...?
ये एक ऐसा प्रश्न है
जिसका जवाब शायद है मेरे पास
पर मैं समझा नही पाऊँगी क्योंकि
मेरे तरकश में शब्दों के इतने तीर नहीं है।

आज बस
कल फिर मैं ही
सादर वंदन

शनिवार, 15 जून 2024

4157 ..हिस्से में तो बस पार्टी के काम का बोझ आया।

 सादर अभिवादन

कल फादर्स डे है
आपके मन में कोई
कोट-फोट हो तो 
सादर आमंत्रित करती हूँ

कुछ रचनाएं



"लगता है आपकी ज़िंदगी अपनी पार्टी के लिए मुफ्त में ही शरीर तोड़ने में कटेगी।" जिले सिंह गुर्रा कर उससे बोले, "क्या फालतू बकवास कर रही है?" "फालतू बकवास नहीं कर रही बल्कि सही बोल रही हूँ। अब तो आस-पड़ोस के लोग भी ताने मारने लगे हैं।" पत्नी उदास होते हुए बोली। जिले सिंह ने मामले की गंभीरता को समझा और गुर्राना छोड़ अपनी पत्नी को पुचकारते हुए उससे पूछा, "क्या ताना मारा? हमें भी तो बता।" "लोग कहते हैं नालायक से नालायक कार्यकर्ताओं ने भी पार्टी से टिकट लेकर अपनी किस्मत बना ली पर आप के हिस्से में तो बस पार्टी के काम का बोझ आया।"




बर्फ की कम्बल ओढ़े
पर्वत श्रृंखलाओं  की
गगनचुंबी चोटियाँ ..,
सिर उठाये
मौज में खड़े त्रिशंकु वृक्ष
जिधर नज़र पसारो
मन्त्रमुग्ध करता..,


आवेग ... (अलक)



सुधांशु बेटे का कान उमेठते हुए, गाल पर थप्पड़ जड़ते हुए चिल्लाए, तीन साल के बेटे के आँख से आँसू निकले गालों पे लटक गए, बेटा गाल सहलाते हुए बहन को देखकर बोला,

“ पापा! दीदी मीठे सेव ही खाती है न, मैं तो चख लहा था।”





लोभ हीनता के कारण ही, तुममें यह आनंद भरा है
सफल करूँगी उसे अवश्य, मिलकर तुमसे सुहर्ष  हुआ है
हार, वस्त्र, आभूषण, अंगराग, बहुमूल्य अनुलेपन दिये
 शोभा नित बढ़ायेंगी तन की , तुम्हारे योग्य ये वस्तुएँ

सदा उपयोग में लाने पर भी,  निर्दोष व शुद्ध रहेंगी
दिव्य अङ्गराग को अपना, तुम लक्ष्मी सी सुशोभित होगी




नंगे हैं अपने हमाम में,
नागर हों या बनचारी,

कपड़े ढकते ऐब सभी के,
चाहे नर हों या नारी,

पोल-ढोल की खुल जाती तो,
आता साफ नज़र चेहरा।

बिन परखे क्या पता चलेगा,
किसमें कितना खोट भरा।।



रियायतें, सहूलियत जाति-धर्म या किसी वर्ग विशेष ही को क्यों ? क्यों नहीं यह जरूरतमंदों की 
पहचान कर या जिन्हें इस सबकी सचमुच जरुरत है, उन्हें दी जाती ? बहुत सारे, अनगिनत ऐसे लोग हैं, 
जिन्होंने सरकारी नौकरी नहीं की ! उनको कोई पेंशन नहीं मिलती ! वे आर्थिक तौर असुरक्षित हैं ! 
ऐसे ही अनेकों लोग जिन्हें आज आर्थिक-मानवीय सहायता की, सरकारी सुरक्षा की अत्यंत ही 
आवश्यकता है पर वे इन रेखाओं के दायरे में नहीं आते और घुट-घुट कर तरस-तरस कर 
जीने को मजबूर हैं ! उनका ख्याल कौन रखेगा ? उनकी चिंता कौन करेगा ? 
वोट तो वे भी देते हैं !



आज बस
कल फादर्स डे है
सादर वंदन
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