आसमान में बेफ्रिक, पंख पसारे उड़ते पंछियों को देखकर
एक विशेष आकर्षण महसूस होता है।
मेरे घर के आँगन में अमरूद के पेड़ पर गौरेया, मैना,कबूतर, कौआ, बुलबुल सामान्यतः भोर से ही कलरव करते कच्चे-पक्के अमरूद के फल कुतर-कुतर कर आँगन में गिराते रहते थे और मैं सर्दियों की गुनगुनी धूप में लेटी गिनती रहती नीली,हरी,पीली,भूरी या काली-सफेद,नन्हीं या थोड़ी बड़ी पंखों वाली कौन सी चिड़िया आयी। छुटपन की उन सारी चिड़ियों की तस्वीरें मन से आजतक ज़रा भी धुंधली नहीं हुई।
अब शहर में कहाँ वो छाँव और कहाँ वो पक्षी...।
पशुओं ,पक्षियों या सृष्टि के
अन्य किसी भी जीव के लिए
ऐसी किसी विशेष शिक्षा की
व्यवस्था देखी नहीं...
सब तो अपनी सीमाओं को भली-भाँति
जानते,समझते और जीते हैं
तो मनुष्य इतना असभ्य कैसे रह गया ?
मिलते हैं अगले अंक में
तीन नहीं तीस है
जवाब देंहटाएंअप्रतिम
आभार..
सादर..
सुंदर.आभार
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर अंक श्वेता आपकी भूमिका हमेशा की तरह काव्यात्मक सटीक ।
जवाब देंहटाएंसभी रचनाकारों को हार्दिक बधाई।
मेरी रचना को पाँच लिंकों पर प्रस्तुत करने के लिए हृदय से आभार।
सादर सस्नेह।
आभार श्वेता जी
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