निवेदन।


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मंगलवार, 30 सितंबर 2025

4526....अपनी-अपनी जरूरत के तहत ही

मंगलवारीय अंक में
आपसभी का स्नेहिल अभिवादन।
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आज की रचनाएं 

देवी मां के दिव्यास्त्र


अग्नि देव से मिला तुम्हें जो भाला वह भी ला दो
ओ माँ शक्ति का प्रतीक यह अस्त्र मुझे दिलवा दो !

वज्र मिला जो इंद्र देव से वह भी मुझको दे दो
आत्म निरीक्षण कर लूँ अपना इतना मुझको बल दो !

हर बुराई से लड़ने का मुझमें विश्वास जगा दो  
मिले विश्वकर्मा से तुमको कवच कुल्हाड़ी ला दो !

   सजगता


यदि चलते जाना है 
अमृत पथ पर 
कंटक रोक न लें 
पाहन बाधा न बनें 


अपनी- अपनी जरूरत

ज़िन्दगी
का सफ़र
हमेशा
की तरह पुरअसरार रहा, अपनी अपनी
ज़रूरत के तहत साथ चलने का
इक़रार रहा । एक आस्तीं
में इश्क़ तो दूजे में
इंतक़ाम छुपा
रखे थे लोग,


उलूक पुराण-२


एक रात इसी नीम के वृक्ष पर भयानक बिजली गिरी! बिजली इतनी शक्तिशाली थी कि घना वृक्ष दो भागों में बँट गया। एक हिस्सा तो जमीन पर धराशायी हो बिछ गया, दूसरा हिस्सा जड़ें पकड़ कर खड़ा रहा। दूसरी सुबह प्रातः भ्रमण के समय मैने एक हिस्से को धरती पर बिखरा पाया तो देखते ही समझ गया, कल रात इस पर बिजली गिरी है। बीच में तोते के जोड़े का घोंसला या तोते का जोड़ा कहीं नजर नहीं आया। बहुत ढूँढा, कहीं नजर नहीं आया। इसी तोते के जोड़े को ढूंढने के प्रयास में बगल की शाख पर  बैठा यह उल्लू का जोड़ा दिख गया! 


बाली यात्रा -४


समुद्र-तट को साफ सुथरा रखने के लिये यह बड़ी प्रेरक पहल है। बीच पर उतरने से पहले एक खुला क्लब , स्वीमिंग पूल और रेस्टोरेंट है जहाँ आराम कुर्सियों पर अर्धनग्न लेटे विदेशी पर्यटक , कनफोड़ शोर करते ड्रम के साथ पाश्चात्य संगीत और तली जा रही मछली की गन्ध आपका स्वागत करती है । मेरे जैसे लोगों के लिये एकमात्र यही अप्रिय अनुभव था लेकिन तट पर पहुँचते ही सारी क्लान्ति विलीन होगई । 


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आज के लिए इतना ही 
मिलते हैं अगले अंक में।

सोमवार, 29 सितंबर 2025

4525...मिले सभी को ठौर-ठिकाना...

शीर्षक पंक्ति: आदरणीय डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' जी की रचना से। 

सादर अभिवादन। 

सोमवारीय अंक में पढ़िए पाँच रचनाएँ-

बालगीत "मेरी पोती अंशिका का अन्नप्राशन" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

मिले सभी को ठौर-ठिकाना, 

 उतरें सब भवसागर पार।

बना रहे आशीष मात का, 

 माता सृष्टि की पतवार।

मना रहे इस दिन को सारे, 

जैसे हो घर में त्योहार।5।

*****

1472

रात फिर नींद नहीं आई

कि अनायास महकती रही यादें

कि हरसिंगार बरसता रहा टप- टप

भीनी- भीनी ख़ुशबू से

शब्दों का बरसना देखती रही

और बुनती रही नायाब सी

अपनी प्रेमासक्त कविता...!!!

*****

माता कात्यायनी

जय माता कात्यायनी,
      शीघ्र हो फलदायिनी,
          दुर्गा  का  षष्ठम रूप,
              लेकर है माता आयी।

महिमा   तेरी  अनूप,
    समझे  न देवा- भूप,
        ले कर बालिका रूप,
            कात्यायन घर आयी।

*****

पुस्तक परिचय - 'नावक के तीर'(साझा दोहा-संग्रह)

दो पंक्तियों में बड़ी सी बड़ी बात कहने का जो जादू ग़ज़ल के एक शेर में होता है वही दोहे की दो पंक्तियों में भी होता है।यही कारण है कि अनेक प्रख्यात शायरों ने भी उत्कृष्ट दोहे कहे हैं। हिंदी के अनेक कवियों के दोहों के स्वतंत्र संग्रह प्रकाशित हुए हैं और यह सिलसिला आज भी जारी है। यह देखकर हम निर्विवाद रूप से कह सकते हैं की दोहा विधा का भविष्य उज्ज्वल है।आईए इस संकलन के कुछ दोहों पर नज़र डालते हैं :

          चाहे तुम मेरा कहो, या अपनों का स्वार्थ। 

          मैं  अंदर  से  बुद्ध  हूं, ऊपर से सिद्धार्थ।।

***** 

छत्तीसगढ़ मा छन्द के अलख जगइया - जनकवि कोदूराम "दलित"

दोहा छन्द - दू पद अउ चार चरण के छन्द आय। दुनों पद आपस मा तुकांत होथें अउ पद के अंत गुरु, लघु मात्रा ले होथे। 13 अउ 11 मात्रा मा यति होथे। कोदूराम दलित जी के नीतिपरक दोहा देखव -

संगत सज्जन के करौ, सज्जन सूपा आय।

दाना दाना ला रखै, भूँसा देय उड़ाय।।


दलित जी मूलतः हास्य व्यंग्य के कवि रहिन। उनकर दोहा मा समाज के आडम्बर ऊपर व्यंग्य देखव - 

ढोंगी मन माला जपैं, लम्भा तिलक लगाँय।

मनखे ला छीययँ नहीं, चिंगरी मछरी खाँय।।

*****

फिर मिलेंगे। 

रवीन्द्र सिंह यादव 



रविवार, 28 सितंबर 2025

4524...जिस पर विश्वास नहीं किया वह पीछे छूट जाता है...

 शीर्षक पंक्ति: आदरणीया अनीता जी की रचना से। 

सादर अभिवादन। 

रविवारीय अंक में पढ़िए पाँच रचनाएँ-

कात्यायनी माता। मां दुर्गा का षष्ठम स्वरूप।

*****महिषासुरमर्दिनी

आते ही मुङ कर चाॅक उठाई

ब्लैक बोर्ड पर इक छवि बनाई 

विशाल शंख-सी आँखों वाली 

देवी माँ जिनकी सिंह सवारी

***** 

व्यतीत

कल, ये परछाईं भी संग छोड़ेगी,
हर पहलू मुंह मोड़ेगी,
सायों सा संग था, खनकता वो कल था,
सर्दीली राहों में, वो संबल था,
अब, प्रशीत हुआ जाता हूं!

अतीत बन, ढ़ला जाता हूं....
*****

भरोसा

जिस पर विश्वास नहीं किया 

वह पीछे छूट जाता है

किया जिस पर अंधविश्वास 

वह काम नहीं आता है !


व्यक्ति खड़ा रह जाता है 

मँझदार में 

अब प्रतीक्षा के सिवा 

कोई उपाय नहीं !

*****

128. ख़ुश रहें कि हम ज़िन्दा हैं

कोरोना के इस गम्भीर और अतार्किक समय में उचित और सटीक क्या हो, यह कोई नहीं बता सकता है। अनुमान, आकलन, अफ़वाहअसत्यअसंवेदनशीलताआरोप-प्रत्यारोप इत्यादि का चारों तरफ़ शोर है। इन प्रतिकूल परिस्थितियों में भी कुछ ऐसा है, जो मन को ख़ुशी दे जाता है। जब से कोरोना शुरू हुआ है, तभी से स्कूल, कॉलेज, ऑफ़िस, दुकानबाज़ार इत्यादि सभी कुछ बंद है। पूरा परिवार जो कभी एक साथ बैठने को तरसते थाआज सब एकत्र होकर न सिर्फ़ खाना खाते है; बल्कि एक दूसरे के साथ मिल-बाँटकर घर का काम भी निपटा रहे हैं। समय के इस काल ने जैसे सम्बन्धों की डोर को मज़बूती से बाँध दिया हो। जिनसे दूरी हो गई थी, वे भी अभी एक दूसरे का हाल-समाचार फ़ोन से ले रहे हैं। बच्चे हों या बुज़ुर्ग तकनीक का प्रयोग करना सीख गए हैं। घर से ही कार्यालय का कार्य हो रहा है जिससे काफ़ी पैसे बच रहे हैं। कम में जीने की आदत अब लोगों में पड़नी शुरू हो गई है। लोग जीवन की सच्चाई से वाक़िफ हो चुके हैं कि जीवन का भरोसा नहींकब बिना बुलाए कोरोना आ टपके और अपनों से सदा के लिए जुदा कर दे।

*****
फिर मिलेंगे। 
रवीन्द्र सिंह यादव 

शुक्रवार, 26 सितंबर 2025

4523...तुरपाई में उलझी माँ..

शुक्रवारीय अंक में 
आप सभी का हार्दिक अभिनंदन।
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ऋतुओं का संधिकाल सृष्टि के अनुशासनबद्ध परिवर्तन चक्र का प्रतिनिधित्व करता है।
आषाढ़ के साँवले बादल, लौटती बारिश की रिमझिम झड़ी क्वार (आश्विन) की पदचाप की धीमी-सी सुगबुगाहट  हरी धरा की माँग में कास के श्वेत पुष्षों का शृंगार  
अद्भुत स्वार्गिक अनुभूति है।
नरम भोर और मीठी साँझ के बीच में धान के कच्चे दानों सा दूधिया दिन धीमी आँच पर पकता रहता है।
शारदीय नवरात्र के उत्सव में आपने कभी देखा है नौजवान ढाकियों को अपने तासे में कास के फूल खोंसकर तन्मयता से  झूमते हुए? 
नव ऋतु की आहट महसूस करते हुए
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आइये पढ़ते हैं आज की रचनाएँ-


देख के क्यों लगता है तुरपाई में उलझी माँ,

रिश्तों के कच्चे धागों में बंधक होती है.


बचपन से ले कर जब तक रहती हमें ज़रूरत,

संपादक हो कर भी वो आलोचक होती है.





भीषण ठंड में 

पत्थर ढोती बालायें  

ढोते भारी बोझ 

टेढ़े अनगढ़ रास्तों पर 

घोड़े व खच्चर 

उन्हें चढ़ते-उतरते देख  

हम लौट आये हैं






 दीवारें चुप हैं, पर उनमें दरारें बहुत हैं,
चुप्पियों के पीछे पुकारें बहुत हैं।
हर मुस्कुराते चेहरे के पीछे जो छिपा है,
उस दर्द के समंदर के किनारे बहुत हैं।





कुछ नहीं तो 
बुन लेती हूँ अपनी आत्मा आकाश और पृथ्वी को थामे 
किसी महा स्तोत्र में घंटों 
मैं बीतती जा रही हूँ उस अलौकिकता में जिसमें 
तुम हो, मंत्र हैं 


पर इतिहास इस बात का भी गवाह रहा है कि यदि भौतिक बदलावों को छोड़ दें तो जो क्रांतियां, तानाशाही, भ्रष्टाचार, वंश, भाई-भतीजावाद के विरोध में की गईं वे तात्कालिक रूप से तो सफल रहीं, परंतु समय के साथ फिर उनके परिणामों में बदलाव आता चला जाता है ! फिर वही पुरानी बुजुर्वा ताकतें हावी होती चली जाती हैं ! 


ऐसे भी हमारी सनातन संस्कृति  में एक संतान का परिचय अपनी माँ के नाम से दिए जाने के अनेकों उदाहरण विद्यमान है। कौन्तेय,राधेय, देवकीनन्दन, गांधारी पुत्र, गंगा पुत्र आदि आदि। इन समस्त उद्धरणों और पौराणिक प्रकरणों के आलोक में छद्म पुरुष मानसिकता से ग्रसित आलोचकों की अमर्यादित आलोचनाएँ न सिर्फ़ बेमानी हैं, प्रत्युत उनके द्वारा आसमान में थूकने के समान है

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आज के लिए इतना ही
मिलते हैं अगले अंक में।
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गुरुवार, 25 सितंबर 2025

4522...साहित्य लेखक के काम नहीं आएगा तो..

 शीर्षक पंक्ति: आदरणीय संतोष त्रिवेदी जी  जी की रचना से। 
सादर अभिवादन। 

गुरुवारीय अंक में पढ़िए पाँच रचनाएँ-

आज की स्त्री


सँवारती थी जो कल तक घर 
आज वो घर सँभालती है,
आज की स्त्री 
दोहरा जीवन जीती है,
दुगुनी आँच को सहती है,
नाप ले चाहे पूरा अंबर 
पिंजरे में ही रह जाती है।

*****


दृश्य के परे


जो सिमट कर रह गई निगाह के बियाबां में
आ कर, उस बिंदु में अब बरसात नहीं
होती, उसे ख़बर है इस ऊसर
भूमि की ओर कोई रास्ता
नहीं आता, फिर भला
किसी का इंतज़ार
कैसा, दूर तक
है धुंध ही
धुंध,


मरूभूमि का श्राप


धैर्यहीनसंवेदनाहीन कृत्यों का सूत्रधार,
अमानवीय छल-कपट से परिपूर्ण आधार।
समग्र संसार ग्रसितकुंठितकर रहा हाहाकार,
सहन नहीं कर सकते अब ओर यह अभिशाप।
मुक्ति मिलेशीघ्र ही जग में सभी को,



परसाई की विरासत-1


इतने पर भी वह बात नहीं बन पा रही थी,जिसके लिए मेरा जन्म हुआ था।मैंने अपने प्रतिद्वंदियों से भी मिलकर दुरभिसंधियाँ की।कई बार ‘ सम्मान’ काटे और कई बार बाँटे भी।सरकारी संस्थानों में अपने शिष्य बनाये।वे लेखक बने और मुझे आर्थिक लाभ भी मिला,पर आपकी शपथयह सब मैंने अपने लिए नहीं पत्रिका के लिए किया।यह सब करते हुए मैंने ऐसी प्रतिभाओं में कबीर को तलाशा (या तराशा?)।आप चिंता  करें,आपको कहीं नहीं खोजा क्योंकि आप तो शुरू से मुझमें ही बसे हैं।आप मेरे प्राण हैं।*****परसाई की विरासत-2



काफ़ी दिनों से तुम्हारा आभार प्रकट करना चाह रहा था।पर क्या करूँ,अब वह दृष्टि नहीं रही।तुम्हारे पास दूर दृष्टि है।पहले केवल ख़ास पक्षी के पास ही पाई जाती थी,पर अब वे भी विलुप्त हो गए।अच्छा है कि तुमने व्यंग्य में वह परंपरा क़ायम रखी है।पूरा साहित्य इससे अभिप्राणित होगा।तुम व्यंग्य के नए शाह हो।परिस्थिति से घबराओगे नहीं,यह जानता हूँ।कुत्ते भौंकते हैं,हाथी अपनी चाल चलते हैं।इस मुहावरे को अपनी रक्षा के लिए इस्तेमाल करना।साहित्य लेखक के काम नहीं आएगा तो किसके लिए आएगा?

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