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शुक्रवार, 11 नवंबर 2022

3574.....नवंबर की कलाई पर

शुक्रवारीय अंक में
आपसभी का स्नेहिल अभिवादन।
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मुझे नहीं पता
क्या लिखना चाहिए
रंग-बिरंगे,विविधता पूर्ण 
क़लम की जीभ से
टपकी कल्पनाओं और यथार्थ के
मिश्रण से बनी
पाठकों के भोग लिए परोसी गयी
 मिठाइयों की
भूमिका में...।
अक़्सर सोचती हूँ
प्रकृति,प्रेम,शृंगार 
जीवन के विविध भाव एवं व्यवहार
आखिर कौन पढ़ता है?
मन के मंथन से निकले
उलझे-सुलझे विचार
जिन शोषित,वंचित की दुर्दशा पर
छाती है, पीटकर बहाते हैं, 
आँसू जार-ज़ार
उनकी दशा बदलना तो स्वप्न है मात्र
पर क्या सचमुच 
उन्हें क्या कभी छू भी पाती है
 हमारी लेखनी की पैनी धार?
 -------
आइये आज की रचनाओं का आनंद लें- 


मुसाफिर फिर से व्याकुल हैं
रास्तों से भटक जाने को
नीले पंखों वाली चिड़िया
मीर के दीवान से सर टिकाये बैठी है
मध्धम सी आंच पर
पक रहा है इंतज़ार




प्रेम जादू नहीं  उससे  भी श्रेष्ठ है
प्रेम सारे गुणों  में सहज ज्येष्ठ है
एक ओछे को इसने किया शिष्ट है
प्रेम पाकर लगा अब कि यथेष्ट है
 

पूरी दुनिया देखनी है तुमको


अभी तो खुद केहक़ केलिए लड़े  हो ,
दूसरों के खातिर लड़ना है तुमको।
लिंग जाती का भेद हटाकर ,
इस दुनिया को बदलना है तुमको।



सच को भी वो सच कहते नहीं 
आचरण पे पड़ा हुआ आवरण। 

मोह किससे अब कहाँ तक रहे 
बँध न पाते अब नयन से नयन। 




हम जिस काल के साक्षी बन रहे हैं, वह नवीन अनुसंधानों और अथाह संभावनाओं का युग है। यहाँ सब कुछ संभव है। ऐसे में मनुष्य के मस्तिष्क और उसके बनाए, समझे विज्ञान के प्रति सिवाय धन्यवाद के भला और क्या ही भाव उपज सकता है! लेकिन जब संवेदनाओं और मनुष्यता पर विचार करने बैठती हूँ तब हृदय ठिठक जाता है। क्या आपको नहीं लगता कि इतनी भौतिक सुविधाओं को भोगते और तकनीकी माध्यम से नित सरलीकरण की ओर अग्रसर जीवन को जीना, अब पहले से अधिक तनावपूर्ण और दुष्कर होता जा रहा है? न केवल सामाजिक तौर पर हम अपना जुड़ाव और संवेदनशीलता खोने लगे हैं बल्कि हमारे मानसिक, शारीरिक स्वास्थ्य पर भी इसके दुष्प्रभाव दिखने लगे हैं। विज्ञान की दी हुई सुविधाओं से हम इतने आह्लादित हो गए कि उन्हें भोगने की तमीज़ भुला बैठे!


आज के लिए इतना ही 
कल का विशेष अंक लेकर
आ रही है प्रिय विभा दी।
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3 टिप्‍पणियां:

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