शीर्षक पंक्ति: आदरणीय ओंकार जी की रचना से।
सादर अभिवादन।
गुरुवारीय अंक के साथ हाज़िर हूँ।
आइए पढ़ते हैं आज की पसंदीदा रचनाएँ-
६७६. कहाँ गया तुम्हारी आँखों का पानी?
पानी, इतने लोगों को
लीलकर भी
तुम इतने शांत कैसे रह सकते हो,
तुम्हारा तो रंग भी नहीं बदला,
कहाँ गया तुम्हारी आँखों का पानी?
दीवारों के निर्माण होते रहे हैं,
मगर द्वार
उनमें भी
खुलते रहेंगे।
कटीली
हवावों ने फाड़े वसन को
पैरहन अपने पैबंद
सिलते रहेंगे।
और चलते-चलते यादों के झरोखे से एक रचना-
मजबूरी का बनके आईना जब
लबों को सिल देती है खामोशी
तब उमडता है दर्द का जो सागर
खामोशी बड़ी खामोशी से बता देती है।
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फिर मिलेंगे।
रवीन्द्र सिंह यादव
अप्रतिम अंक
जवाब देंहटाएंसादर
सुन्दर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंसभी रचनाएं अनुपम व सुंदर प्रस्तुति, मुझे अपने बज़्म में जगह देने हेतु शुक्रिया मान्यवर रविन्द्र जी, नमन सह ।
जवाब देंहटाएंबढ़िया प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी हलचल प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंसुंदर हलचल प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंबहुत बढियां संकलन
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