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गुरुवार, 3 नवंबर 2022

3566...कहाँ गया तुम्हारी आँखों का पानी?

शीर्षक पंक्ति: आदरणीय ओंकार जी की रचना से। 

सादर अभिवादन।

गुरुवारीय अंक के साथ हाज़िर हूँ।

आइए पढ़ते हैं आज की पसंदीदा रचनाएँ-

६७६. कहाँ गया तुम्हारी आँखों का पानी?

पानी, इतने लोगों को लीलकर भी

तुम इतने शांत कैसे रह सकते हो,

तुम्हारा तो रंग भी नहीं बदला,

कहाँ गया तुम्हारी आँखों का पानी?

मेरी नज़र से देखो - -

इक नदी, जो बहती है हमारे दरमियां
सीने के अंदर, गहराई लिए अंतहीन,

तैरते हैं उसके ऊपर सघन मेघ छाया,
झिलमिल चाँद, आकाशगंगा रंगीन,

गीत रचते रहेंगे....

दीवारों  के  निर्माण  होते  रहे  हैं,

मगर द्वार उनमें  भी  खुलते रहेंगे।

कटीली हवावों ने फाड़े वसन को

पैरहन  अपने  पैबंद सिलते रहेंगे।

माँ और बेटे का व्यवहार

समय की कीमत समझो समय पर आया जाया करो |नियमित जीवन बहुत उपयोगी होता है |सभी कार्य यदि समय से करोगे कभी समय की कमीं नहीं पड़ेगी |हम भी नौकरी करते थे पर सारे काम समय पर होते थे। 

और चलते-चलते यादों के झरोखे से एक रचना-

ख़ामोशी 

मजबूरी का बनके आईना जब
लबों को सिल देती है खामोशी
तब उमडता है दर्द का जो सागर
खामोशी बड़ी खामोशी से बता देती है।

*****

फिर मिलेंगे। 

रवीन्द्र सिंह यादव 

 

7 टिप्‍पणियां:

  1. सभी रचनाएं अनुपम व सुंदर प्रस्तुति, मुझे अपने बज़्म में जगह देने हेतु शुक्रिया मान्यवर रविन्द्र जी, नमन सह ।

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