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शुक्रवार, 8 सितंबर 2017

784....आभार गौरी लंकेश जानवरों के लिये मरने के लिये

शुभ प्रभात....
सितम्बर आठ
पता नहीं और क्या-क्या होगा..
जो होना है..
इकट्ठा ही हो जाता...
सच में...... मर्दानगी जाग जाती
भारत की जनता की

आज अभी तक की पढ़ी रचनाओं मेें से...

पहली बार..
नई विधा.......बिंदी
फिर अचानक जाने क्या हुआ सुलेखा रिक्शा से उतर कर उस ओर बढ़ी। उसने लड़की को रोका और कहा डरो मत। तब तक लड़के उन दोनों के क़रीब पहुँच गए। एक ने सुलेखा से कहा अपने काम से काम रख इसे भेज मेरी तरफ़ । सुलेखा ने आव देखा न ताव एक ज़ोरदार थप्पड़ उसके गाल पर दिया। दूसरे ने कहा उसे बाद में पहले तुझे देखते है। सुलेखा ने नाइन्थ क्लास में सीखी कराटे की फिर जो शुरुआत की मगर वो अकेली थी, आख़िर कब तक दोनों का सामना करती। दोनों लड़को ने उसके हाथ और पैर पकड़ लिए। तभी सुलेखा को मुसीबत में देख उस डरी, सहमी लड़की को साहस आ गया उस ने सड़क पे पड़ा एक पत्थर उठा कर
हाथ की तरफ़ वाले लड़के के सिर में दिया।




ब्लॉग मेरी आवाज....कहीं चिराग जल गया शायद
कहीं पे फूल खिल गया शायद
कहीं गुलशन महक उठा शायद

मेरे पापा ख़ुशी से झूम उठे ,
कहीं चिराग जल गया शायद



बोल सखी रे...तुम मेरा मधुमास बन कर लौट आओ
था सघन नव स्नेह तेरा मेरे ऊपर
और मेरा प्रेम कुछ उथला बुना था
मै रुका था रीत थामे इस धरा की
तुम स्वरा सी मुक्त होकर बह चली थीं.

रूप-अरूप....ओ साथी
ओ साथी
तेरे इंतज़ार में गिन रहे
समुद्र की लहरें
जाने कितने समय से
समेट लो अपने डैने
मत भरो उड़ान
लौट आओ वापस
समुद्र वाली काली चट्टान पर



 "जीवन कलश" ......निशा प्रहर में
मेरी अधरों से सुन लेना तुम निशा वाणी!
ये अधर पुट मेरे, शायद कह पाएँ कोई प्रणय कहानी!
कुछ संकोच भरे पल कुछ संकुचित हलचल!
ये पल! मुमकिन भी क्या मेरे इस लघु जीवन में?


नीतू राठौर

विविधा....अहसास पहले खो गए
आपसे बिछड़े तो इतने खो गए
हम थे किसके और किसमें खो गए।

आपकी तस्वीर क्यूँ दिखती नहीं
प्यार में दिल, दिल से मिलते खो गए।

विश्वमोहन उवाच......पूरा सच
मेरा क्रांतिकारी कद!
कसम से कसमसाया.
पर पुचकार के पूछा,
तुम कौन! किसने बुलाया?

साया सुगबुगाया, फुसफुसाया,
आवाज फुटती, बुझती......
......मै! 'पूरा सच'
रामचन्द्र छत्रपति!

उलूक टाईम्स....आभार गौरी लंकेश.....

‘उलूक’
‘गौरी लंकेश’
हो जाना
सौभाग्य की
बात है
तुझे पता है
सारे पूँछ
कटे कुत्ते
पूँछ कटे
कुत्ते के
पीछे ही
जाकर
अपनी
कटी पूँछ
बाद में
छुपायेंगे।

दे इज़ाज़त
सादर
दिग्विजय ..



आज के रचनाकार..
श्रद्धा मिश्रा, नीलेन्द्र शुक्ल "नील", अपर्णा बाजपेई, 
रश्मि शर्मा, पुरुषोत्तम सिन्हा, विश्वमोहन, डॉ. सुशील जोशी

9 टिप्‍पणियां:

  1. शुभप्रभात आदरणीय सर जी,
    कम शब्दों में सारगर्भित कहना आपकी विशेषता है क्या गज़ब की बात कही आपने 'सच में...... मर्दानगी जाग जाती
    भारत की जनता की'

    बहुत सार्थक एवं सुरूचिपूर्ण लिंकों का संयोजन एवं प्रस्तुति करण आज के अंक मे।

    सभी चयनित रचनाकारों को बधाई एवं शुभकानाएँ।

    जवाब देंहटाएं
  2. 'पूरा सच' कहने का आभार! सार्थक एवं सुरूचिपूर्ण लिंकों का संयोजन!लिंक के सूत्रधार,रचनाकार एवं पाठक - सबको शुभकामना!

    जवाब देंहटाएं
  3. कुछ तो लोग कहेंगे लोगों का काम है कहना। जमाना बदल रहा है। आप को क्या है कहना जरा लोगों से पूछ भी लेना । आज की प्रस्तुति में 'उलूक' उवाच को जगह देने के लिये आभार दिग्विजय जी।

    जवाब देंहटाएं
  4. शुभप्रभात....
    सुंदरसंकलन....
    आभार....

    जवाब देंहटाएं
  5. नमस्ते। प्रोफेसर जोशी सर की रचना की पंक्तियां लिए आज का शीर्षक बहुत पैनापन लिए है। यह पंक्ति आक्रोश , क्षोभ और खिन्नता उत्पन्न करती है। लोकतांत्रिक मूल्यों में विश्वास रखने वालों को आलोचना सहन करने की क्षमता विकसित करनी चाहिए। अब लगता है क्षमता समाप्ति की ओर है इसीलिए समाज का हिंसक रूप आए दिन हमारी चर्चा में आ रहा है। दक्षिणपंथ भी एक विचार है बामपंथी एक विचार है दोनों को खारिज नहीं किया जा सकता। किंतु इन की श्रेष्ठता सिद्ध करने के प्रयास जब सकारात्मक नहीं होते हैं तब तानाशाही जन्म लेती है और समाज पिसता है इन विचारों के बीच ,जीता है घुटन में। बहुत पीड़ा होती है जब मैं रचनाकारों को अपने अपने पाले में खड़ा हुआ देखता हूं। रचनाकार की सोच राजनीतिक सीमाओं से परे होती है विशुद्ध मानवीय होती है, कहां गया हमारा वसुधैव कुटुंबकम का विचार? समाचार हैं कि गौरी लंकेश की निर्मम हत्या पर समाज के एक तबके ने जश्न भी मनाया है। भारतीय जीवन दर्शन में किसी की मृत्यु पर आल्हादित होना वर्जित समझा गया है। सुंदर प्रस्तुति आदरणीय दिग्विजय भाई साहब की। सभी चयनित रचनाकारों को बधाई एवं शुभकामनाएं। नए उभरते रचनाकारों को पांच लिंकों का आनंद में स्थान मिलना सुखद है उन्हें सदैव प्रोत्साहन की जरूरत होती है। आभार सादर।

    जवाब देंहटाएं
  6. आदरणीय "दिग्विजय" साहब आज का अंक कई मायनों में विशेष है। सोई हुई मानवता कब जागेगी ,ये तो नहीं मालूम परन्तु साहित्य समाज अवश्य जाग रहा है इस घटना से यह सिद्ध हो गया है कि कलम की ताकत आज भी तलवार से ज्यादा है। अत्यंत तार्किक संकलन ,नमन परम श्रद्धेय "गौरी लंकेश" को
    आभार ,"एकलव्य"

    जवाब देंहटाएं

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