शुक्रवार अंक में
रक्षा सूत्र को ऐसे खुद से खुद को क्यों पहनाया ?
दो मत दो रूपों में मैं थी अपने पर ही भारी !
मतभेदों की झड़ी लगी मुझ पे ही बारी-बारी।
नेह में मोती पिरोकर
दीप में किरणें प्रभा की।
आरती वन्दन करूँ मैं
नेह की थाली सजा ली॥
प्रेम के उपहार मेरा से
दिल ही भर गया॥
हुए जो इतने निशब्द लब अब, कहीं ये गंदे दिल को ख़ल न जाए। ज़रा तो दिल में उतर के देखो, लिटरेचर किस्से बदल गए हैं, बड़ा ही दुश्मन है ये ज़माना, परस्पर जुड़ें उनकी स्वायत्तता ना जाए
कल का विशेष अंक लेकर
आ रही हैं प्रिय विभा दी।
उम्दा प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंसादर वंदे
बहुत बढ़िया लिंक की प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंरूमानी ग़ज़लों के चलन के दौर में जब दुष्यंत की ग़ज़लें लोगो ने पढ़ी तो अचंभित हो गए कि क्या ऐसे भी ग़ज़ल लिखी जाती है.
जवाब देंहटाएंसमकालीन ग़ज़लों की परिभाषा दुष्यंत ने ही गढ़ीं है.
दुष्यंत को समर्पित यह अंक पठनीय है
अच्छी भूमिका के लिए साधुवाद
सम्मलित सभी रचनाकारों को बधाई
मुझे सम्मलित करने का आभार
सादर
सुंदर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंएक बूढ़ा आदमी है मुल्क़ में या यों कहो—
जवाब देंहटाएंइस अँधेरी कोठरी में एक रौशनदान है
लाजवाब भूमिका के साथ शानदार प्रस्तुति... सभी लिंक बहुत ही उत्कृष्ट ...मेरी रचना को भी यहाँ स्थान देने हेतु दिल से धन्यवाद एवं आभार प्रिय श्वेता !
सुंदर प्रस्तुति !!
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