शुक्रवारीय अंक में
आप सभी का स्नेहिल अभिवादन
-------
*जो झुक सकता है वो झुका भी सकता है।
• जीवन लंबा होने की बजाए महान होना चाहिए।
* कानून और व्यवस्था राजनीतिक शरीर की दवा है और जब राजनीतिक शरीर बीमार पड़े तो दवा जरूर दी जानी चाहिए।
* एक महान आदमी एक प्रतिष्ठित आदमी से इस तरह से अलग होता है कि वह समाज का नौकर बनने को तैयार रहता है।
* धर्म मनुष्य के लिए बना है न कि मनुष्य धर्म के लिए।
*देश के विकास से पहले हमें अपनी बुद्धि के विकास की आवश्यकता है।
आज
स्वतंत्र भारत के महान संविधान के रचयिता
बाबा भीमराव अंबेडकर जी की जयंती पर
पूरा भारत उन्हें याद कर रहा है।
किसान और फसल भारतीय संस्कृति में अति महत्वपूर्ण भूमिका निभाते है। फसल के हर मौसम को देश के
विभिन्न प्रांतों में अलग-अलग नामों से उत्सव की तरह
मनाया जाने की परंपरा अनेकता में एकता का बेजोड़ उदाहरण है। इसी समृद्ध कड़ी में हर वर्ष 14-15 अप्रैल को
विशेष रूप किस रूप में मनाते है आइये जानते हैं-
पंजाब और हरियाणा में बैसाखी, असम में बोहाग बिहू,बंगाली समुदाय का पोइला बोइशाख, केरल में
विशु कानी,तमिल में पुथंडु, बिहार,मिथिलांचल में सतुआनी... मुझे इतनी ही जानकारी थी अगर आपको
इस संबंध में कुछ और पता है तो कृपया जरूर साझा करें।
क्षमा चाहेंगे
आज भूमिका काफी लंबी हो गयी है।
------
आइये आज की रचनाओं की दुनिया में चलते हैं-
व्यथाओं के इतिहास में प्रकृति की पीड़ा
मानव जाति और जीवन के भविष्य के लिए अत्यंत गंभीर प्रश्न करती है जिसे अनसुना नहीं किया जाना चाहिए...।
भरी दोपहरी में कभी
शीतल छाया से मेरी
पथिक कोई थका हारा र
घड़ी दो घड़ी कर विश्राम
पा कर सकून
निकल पड़ता राह अपनी
झूम उठती थी तब हरी भरी
फूलों फलो से लदी डालियाँ मेरी
मन की परतों में अनवरत चलते विचारों
में जब भावनाओं का स्पर्श हो तो ऐसी कविताओं
का अंकुरण होता है।
मैं कह सकता हूँ एक बात
कि अब मेरे पास कोई बात नहीं बची है
मेरे पास जो बचा है
वो इतना निजी है कि
उससे कोई बात नहीं बनाई जा सकती है
जीने और कहने के मध्य
मैं अटक गया हूँ एक खास बिन्दु पर
स्मृतियों को बाँधकर रखा जा सकता है या
नहीं पता नहीं पर हम चाहे न चाहे कुछ स्मृतियाँ
अवश मन के ईर्द-गिर्द बंध जाती हैं
..शायद कुछ स्मृतियाँ जीवन के
बेरंग पलों को अपनी सुगंध से भर देती हैं
और कुछ जीवन को बंजर कर देती हैं।
अक्सर, आ घेरे वो लम्हा,
पूछे मुझसे, वो था क्यूं इतना तन्हा!
सिमट गए, क्यूं, बलखाते पल!
बारिश की, भींगी रातों से!
बांध गया कोई, अपनी ही यादों से!
लेखनी जो भी कहे ऐसा कहे जिसे पढ़कर
मुस्कान और विवेक के पंख दोनों खुल जाएँ..
अपने झूठ को सच करने के लिए कागज दिखाओ तो कागज का सच भी सामने आ जाता है- करेले पर नीम चढ़ जाता है. उससे बेहतर तो कई बार लगता है कि करेले को करेला ही रहने दो, लोग जानते तो हैं ही – क्या झूठ को सच साबित करना.
किसी भी परंपरा को आँख मूँद कर तथ्य हीन और तर्कहीन होकर निभाना कितना सही है एक बार विचार अवश्य करें-
इंसान किसी अनहोनी, असंभाव्य या अनजान डर से, यह जानते हुए भी कि ऐसा कुछ नहीं होगा फिर भी इतना भयभीत रहता है कि कुछ ना कुछ तर्कहीन कार्य-कलापों का सहारा ले ही लेता है ! ऐसे में ही यदि कुछ अच्छा घट जाता है तो हमारा विश्वास उन चीजों पर और भी बढ़ जाता है ! देखा जाए तो यदि मष्तिष्क को सकून मिलता है, डर थोड़ा तिरोहित होता है, किसी का कोई नुक्सान नहीं होता तो दिल को समझाने के लिए ऐसी चीज का उपयोग बुरा भी नहीं है , पर वही सही है ऐसा दिलो-दिमाग पर छा जाना भी उचित नहीं है ! वैसे यह भी एक तरह का फोबिया ही है !
आज के लिए इतना ही
कल का विशेष अंक लेकर
आ रही हैं प्रिय विभा दी।
----
कविताओं के मर्म को चूमती हुई बेहतरीन टिप्पणी, इस अंक को रोचक बना गई है। आदरणीया श्वेता जी का जीवन दर्शन का समावेश भी अत्यंत रोचक है। बहुत बहुत बधाई व आभार।।।।।
जवाब देंहटाएंजो झुक सकता है वो झुका भी सकता है
जवाब देंहटाएंबेहतरीन अंक
सादर
वाह
जवाब देंहटाएंबढ़िया लिंक्स का चयन
सारगर्भित और पठनीय सूत्रों से सजा अंक।
जवाब देंहटाएंआभार।
जवाब देंहटाएंवाह! श्वेता ,शानदार भूमिका, सुंदर लिंक्स...।
जवाब देंहटाएं