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सोमवार, 2 दिसंबर 2019

1599..हम-क़दम का संत्यानबेवाँ अंक... शहर


सोमवारीय विशेषांक में आप सभी का हार्दिक
स्वागत है।

शहर का नाम आते ही आँखों के सामने एक भव्य तस्वीर खींच जाती है। खूबसूरत अट्टालिकाएं,साफ-सुथरी सड़कें,दौड़ती-भागती मोटर गाड़ियाँ,वायुयान, रेलगाड़ियां, सुख-सुविधा से युक्त एक स्वप्न नगरी 
जिसके आकर्षण में बँधकर,अपनी जड़ों से उखड़कर
इस मायाजाल के एक कोने में अपनी सुख की गृहस्थी बसाये अपने सुखी परिवार के साथ जीवन जीने की लालसा आज के दौर में हर कोई देखता है।
सभ्य,सुसंस्कृत,शिक्षित,परिष्कृत और भी जाने क्या-क्या उपमान एवं अलंकरण से श्रृंगारित किये जाते हैं शहर।
एक दूसरा पहलू है इन शहरों का,इन अट्टालिकाओं की छाँव में बसे 
बदबूदार झुग्गी-झोपडियाँ,सुविधाहीन,बदहाल जिनकी
संख्या में तुलनात्मक वृद्धि होती है हर साल इनकी जीवनशैली जरुरतों एवं पीड़ा का अनुमान भर ही कर सकते है शहर।
अपनी सुख और स्वार्थ में अंधाधुंध शहर बनाता मानव 
आज प्रदूषण,जल और अनगिनत बेनामी सुनामियों से त्रस्त है।


सभ्यताएँ करती हैं बगावत
परंपराओं की ललकार में
भूख हार मान जाती है
सोंधी माटी से तकरार में
रोटी की आस में जुआ उतार
गमछे में कुछ बाँध चबेने
गाँव शहर हो जाते हैं।



शुरूआत काल जयी रचनाओँ से
शहर....अमृता प्रीतम
यह बहस जाने सूरज से शुरू हुई थी
जो उसे देख कर यह और गरमाती
और हर द्वार के मुँह से
फिर साईकिलों और स्कूटरों के पहिये
गालियों की तरह निकलते
और घंटियाँ-हार्न एक दूसरे पर झपटते



यह भागता शहर....रंजना जायसवाल
क्रिया के बिना वाक्य हो जैसे
गति बिना जिंदगी यहाँ
विराम नहीं
ठहरने और सुस्ताने की जगहें भी
मानकर चलते हैं सभी
"अवसर नहीं खटखटाएगा फिर द्वार”

★★★★★
नियमित रचनाएँ ....

आदरणीय साधना वैद
आये थे तेरे शहर में

आये थे तेरे शहर में मेहमान की तरह,
लौटे हैं तेरे शहर से अनजान की तरह !

सोचा था हर एक फूल से बातें करेंगे हम,
हर फूल था मुझको तेरे हमनाम की तरह !

★★★★★

आदरणीय कविता रावत
गाँव छोड़ शहर को धावै
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गाँव छोड़ शहर को धावै
करने अपने सपने साकार
खो चुकें हैं भीड़-भाड़ में
आकर बन बैठें हैं लाचार!

निरख शहर में जन-जन को
बिखरते सपने टूटता दिल
भटक रहें हैं शहर-शहर
पर पा न सके मंजिल

★★★★★★

आदरणीय अनीता श्रीवास्तव
आधुनिक होते ये शहर..
अब चले ऐसी लहर
जीयें लोग नहीँ सिहर सिहर
खिले पुष्प अब निखर निखर
हो ये मेरे सपनों का शहर
ऐसा आधुनिक  हो मेरा शहर..

★★★★★

आदरणीय अनीता श्रीवास्तव
दोहावली ..
बाबा भैरव जी रहे , काशी थानेदार ।
हुये द्रवित ये देख के ,ठगने का व्यापार।।

धीरे चलता शहर ये,अब विकास की राह।
काशी मूल रूप रहे ,जन मानस की चाह ।।

★★★★★

आदरणीय कुसुम कोठारी
थोड़ा शहर गाँव में ...

कहां गये वो सरल स्वभाव ,
सब "शहरों" की और भागते
 नींद  ओर चैन गंवाते ,
या वापस आते समय
थोडा शहर साथ ले आते ,
सब भूली बिसरी बातें हैं
और यादों के उलझे धागे हैं।

★★★★★

आदरणीय मीना शर्मा
चिड़िया चली शहर से दूर ....

चिड़िया चली शहर से दूर,
शोर उसे था नामंजूर,
वहाँ पेड़ बचे ना हरियाली,
ना है दाना ना पानी !!!!
भटकी इधर-उधर बेचारी
सुन लो उसकी करूण कहानी !

★★★★★

आदरणीय अनुराधा चौहान
बीत गए बरसों ....

मटके की थाप पे थिरक उठे
पर्दे में छिपे गोरे मुखड़े
पायल की मधुर रुनझुन-रुनझुन
चूड़ियों से खनकते घर के कोने

पर्दे, घुंघरू,रेहट,सरसों
बीत गए इन्हें देखे बरसों
सब चारदीवारी में सिमट गए
पत्थरों के शहर में जो बस गए

★★★★★★

आदरणीया उर्मिला सिंह
सुनहरा शहर कहीं खो गया

तुम्हें पुरुष कहने में भी शर्म सार शब्द होते 
तुम से,बाप भाई के नाम भी कलंकित होते 
लाश को भी,तुम जैसे निकृष्ट जब नहीं छोड़ते 
कैसे तुम अपनी बहन बेटियों को होगे छोड़ते!! 

★★★★★

आदरणीया शुभा मेहता
शहर

कभी गुलजा़र हुआ करता था 
  हर तरफ हुआ करती थी 
   ताजा हवा ...
    जिसके झोंके से 
     मिलता था सुकून .
      पेडों की शाखों पर 
      गाते थे पक्षी ..
★★★★★

आदरणीय सुबोध सिन्हा
शहर सारा ख़ामोश क्यों है

टूटता है क़ानून चौथा जब टूटती हैं खाली
बोतलें शहर "पटना" में हमारे जो है
राजधानी भी राज्य बिहार की
कहते हैं लोग कि शायद है लागू यहाँ
"बिहार शराबबंदी क़ानून,1016" अभी भी
दिख जाते हैं लड़खड़ाते बाराती फिर भी
फिर भी बुद्धिजीवी शहर सारा ख़ामोश क्यों है ?
"एक असभ्य कुतर्की" बारहा ये पूछता है ...




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हमक़दम का अगला विषय
जानने के लिए
कल का अंक पढ़ना न भूलेंं।

#श्वेता

12 टिप्‍पणियां:

  1. बेहतरीन रचनाओं का मधुर संगम..
    शुभकामनाएँ सभी को...
    सादर..

    जवाब देंहटाएं
  2. बहुत उम्दा संकलन
    उम्दा प्रस्तुति

    जवाब देंहटाएं
  3. सुन्दर प्रस्तुति, मेरी रचना को मंच पर स्थान देने के लिये आभार

    जवाब देंहटाएं
  4. वाह बहुत सुंदर प्रस्तुति ।सभी रचनाएँ बेहतरीन। सभी रचनाकारों ो हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएँ।

    जवाब देंहटाएं
  5. सुन्दर सार्थक रचनाओं से युक्त बेहतरीन संकलन ! मेरी रचना को सम्मिलित करने के लिए आपका हृदय से बहुत बहुत धन्यवाद एवं आभार श्वेता जी ! सप्रेम वन्दे !

    जवाब देंहटाएं
  6. 'शहर' शब्द से मेरे कानों में अगर सबसे पहले कुछ गूँजता है तो ये दो गज़लें -
    1 - हम तेरे शहर में आए हैं, मुसाफिर की तरह...
    गुलामअली जी की मखमली आवाज में इस गज़ल को सैकड़ों बार सुना और ना जाने क्यों, हर बार इसे सुनते सुनते आँखें भर आती हैं !!!
    2 - सीने में जलन आँखों में तूफान सा क्यों है...
    बहुत ही खूबसूरत गज़ल जिसे कालेज के दिनों में गाते और सुनते बड़े हुए।
    खैर ! आजकल कुछ लिखा नहीं जा रहा, पढ़ना भी सीमित हो गया। आशा है सभी क्षमा करेंगे। बहरहाल आज के अंक की सभी रचनाएँ पढ़ ली हैं। बहुत अच्छा सृजन सभी का। मेंरी रचना को शामिल करने हेतु तहेदिल से पुनः पुनः आभार।

    जवाब देंहटाएं
  7. बहुत सुंदर प्रस्तुति, मेरी रचना को स्थान देने के लिए आपका हार्दिक आभार श्वेता।

    जवाब देंहटाएं
  8. सुंदर प्रस्तुति प्रिय श्वेता। आज लिखना बहुत कुछ चाहा था पर समय ने साथ ना दिया। सभी रचनाकारों को शुभकामनायें और तुम्हें भी सार्थक भूमिका के साथ सुंदर प्रस्तुतिकरण पर हार्दिक बधाई। 💐💐💐💐

    जवाब देंहटाएं
  9. एक सार्थक विषय पर सुंदर भूमिका के साथ बेहतरीन रचनाओं का संगम ,सभी रचनाकरों को हार्दिक शुभकामनाएं ,सादर नमन

    जवाब देंहटाएं

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