सुबह-सुबह सूचना मिली
आज भाई कुलदीप जी
कुछ ज्यादा ही व्यस्त रहेंगे
सो आज हम हैं...
देखिए हमारी पसंदीदा रचनाएँ......
आनन्द लीजिए आज
दही वाली लौकी की सब्जी का

ज्यादातर लोग लौकी की सब्जी खाना पसंद नहीं करते। लेकिन यदि आप इस तरह दही वाली लौकी की सब्जी बनायेंगे, तो यकीनन हर कोई इसे बार-बार बनाने की फरमाइश करेगा क्योंकि इसका स्वाद होता ही इतना लाजवाब हैं। सबसे बड़ी बात यह बनाना बहुत ही आसान हैं। ये सब्जी इतनी स्वादिष्ट बनती हैं कि आप इसे पार्टी में भी बना सकते हैं! दही और लौकी सेहत के दृष्टिकोण से भी बहुत फ़ायदेमंद हैं।
एक हृदय पाने की कोशिश ....
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धड़कन के इस करुण रुदन पर
घायल मन के मौन कथन पर
अट्टहास करते रहना तुम
इस भोले से अपनेपन पर !!!
इंद्रधनुष छूने की कोशिश !
एक हृदय पाने की कोशिश !!!
धिक्कार है ....
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खुशी होती थी उसे
अपने वजूद पर
मूक जानवरों की पीड़ा समझती थी वो
स्नेह से दुलारती भी थी शायद
लेकिन नहीं जानती थी वो, कि
जानवर तो मूक होता है
स्नेह की भाषा समझ जाता है
लेकिन
खतरनाक होता है वो जानवर
जो बोलता है एक मानवीय भाषा
पर,
जो स्नेह नहीं, जिस्म समझता है
धरती स्त्रियों के लायक़ नहीं रही ...
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बेटियों को सब पर संदेह करना सिखाओ। उन्हें हथियार चलाना सिखाओ और आवश्यकता पड़ने पर उसका तुरंत उपयोग करना भी। आती-जाती सरकारों ने आज तक कुछ नहीं किया, आप उनके भरोसे न रहें! अपनी रक्षा आप करें! पुरुष मानसिकता में सुधार आने की सोच रखना एक भ्रम है, जिसे हम और आप वर्षों से पाल रहे हैं।
कोई सरदार कब था इससे पहले तेरी महफ़िल में....
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अली सरदार जाफ़री की ग़ज़लों से चुनिंदा शेर
है और ही कारोबार-ए-मस्ती
जी लेना तो ज़िंदगी नहीं है
सौ मिलीं ज़िंदगी से सौग़ातें
हम को आवारगी ही रास आई
क़ैद हो कर और भी ज़िंदां में उड़ता है ख़याल
रक़्स ज़ंजीरों में भी करते हैं आज़ादाना हम
चाहत हो जाती हूँ ......
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ऊँचे पर्वतों के हौसले,
गहरी सी सागर कि साँसें,
धैर्य के लहलहाते हरेभरे खेत,
रेगिस्तान की जलती जीवित रेत,
वृक्ष,पुष्प,झरने,बादलों का बहकना,
डूबते सूरज के रंग संग,पवन का महकना,
जीवनपूर्ण रिमझिम के संग खुशियां बढ़ाती हूँ,
जब मैं प्रेम और त्यागमयी धरती सी बन जाती हूँ।
....
आज बस इतना ही
फिर मिलते हैं न
सादर
शुभ प्रभात
जवाब देंहटाएंसराहनीय संकलन
बेहतरीन रचनाएँ..
जवाब देंहटाएंशानदार अंक..
सादर..
बहुत अच्छी रचनाएँ है दी।
जवाब देंहटाएंसुंदर संकलन
सादर।
हैप्पी होली
जवाब देंहटाएंहैप्पी बर्थडे
हैप्पी दीवाली
मेरी क्रिसमस
हैप्पी तीज त्योहार
देखो स्त्रियों के जिस्म से अतिशबाजी हो रही है
इनसे कितना रोशन है हमारा समाज
मजे की बात है इससे न ध्वनि प्रदूषण होता हैं
और न ही किसी की आंखे जल रही है।
सब मजे में।
हम पोत डाले स्याही को
रगड़ डाले कलम को खुशियों के गीतों में।
लाशों के अंगारों पर हम पका सकें
अपनी समझ को
ठंडी पड़ी राख पर कुरेद सकें कुछ पंक्तियां
या फिर कीलें उगा लेनी चाहिए
जूतों के तलवो में
और हकीकत के दर्द से रूबरू हो सके
और ठोकरों को भी ठोकर जैसी पीड़ा दे सकें।
ये जाड़े का मौसम है
बूढ़ों की तरह हाथ सेकने के लिए
या दर्द अनुभव करने के लिए
इससे बढ़िया वक्त ना मिलना।
- रोहित
प्रिय रोहितास , आपकी रचना बेहद मार्मिक और स्तब्ध करने वाली है | सचमुच हम लोग आत्ममुग्ध हैं | हमें शायद कुछ फर्क नहीं पड़ रहा | भले ही इन आतिशबाजियों से कोई मजे में ना हो पर सब अभ्यस्त हो चुके हैं||इस तरह की खबरें सुनने के | भारत की बेटियों की ये दुर्दशा आज बस दो घड़ी के शोक और मोमबत्तियों की मोहताज होकर रह गयी है| दो मिनट आकुल- व्याकुल हो हम फिर दुनियादारी में लिप्त हो जाते हैं
हटाएं|| कहीं कठुवा , कहीं रांची , कहीं दिल्ली तो अब हैदराबाद | कहाँ सुरक्षित है बेटियां ? स्त्री देह हवस में डूबे भेडियों को किसी लड़की , औरत में नोचने- खसोटने के लिए देह नजर आती है ना कि किसी की बहन बेटी या माँ |एक हंसती खेलती बच्ची घर से जाए और जली लाश के रूप में आये | इससे बढ़कर स्त्री देह के साथ कौन सा अन्याय होगा |
आदरणीया विभा दी, बहुत बहुत आभार मेरी रचना को शामिल करने के लिए।
जवाब देंहटाएंसुन्दर लिंक्स
जवाब देंहटाएंबढ़िया प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंमिले जुले अहसासों वाली प्रस्तुति.... बिल्कुल रविवार की तरह....मेरी रचना को स्थान देने का शुक्रिया
जवाब देंहटाएंबेहतरीन प्रस्तुति ,आज कई दिनों बाद मेरा ब्लॉग पर आना हुआ, इतने दिनों से मैं इन बेहतरीन रचनाओं को पढ़ने से वंचित रह गई थी ,सादर नमस्कार
जवाब देंहटाएंबेहतरीन प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंबढ़िया संकलन यशोदा दी। मेरी रचना को पांच लिंको का आनंद में शामिल करने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंशानदार संकलन....
जवाब देंहटाएंबहुत ही भावपूर्ण अंक आदरणीय दीदी | शीर्षक से ना जाने क्यों मन बहुत भावुक हो गया | सचमुच धरती तो नहीं अपना देश बेटियों के रहने योग्य नहीं रहा |सीता सावित्री के देश में नारी खासकर बेटियों के साथ जो हो रहा है , भीतर क्षोभ और बेबसी पैदा करता है |सभी अंक अत्यंत पठनीय और सराहनीय हैं सभी रचनाकारों को सस्नेह शुभकामनायें |
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