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शुक्रवार, 31 अक्टूबर 2025

4557.... व्यर्थ कहीं जब मन यह दौड़े...

शुक्रवारीय अंक में 
आप सभी का हार्दिक अभिनंदन।
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जीवन की आपाधापी, राजनीति की उठा-पटक,समाजिक मुद्दों 
पर जरुरी-गैर जरूरी बहस, दैनिक जरुरतों की भाग-दौड़ के 
बीच आपने महसूस किया क्या मौसम के बदलते मिज़ाज को?

नवंबर की दस्तक के साथ सुबह शाम हवाओं की 
मीठी गुनगुनाहट, बागों मेंं नारंगी,पीले गेंदा, 
चंद्रमालिका की फूटती कलियों की महक से बौराये, मंडराते 
भँवरेंं और तितलियाँँ, चिड़ियों का मीठा कलरव,
कास के धवल फूलों से आच्छादित नदी,नहर,खाली 
मैदान। मुस्कुराती प्रकृति जो हौले से कह रही है फिजाँ बदलने वाली है पहाड़ों का मौसम वादियों में जल्दी ही उतर आयेगा।  कभी  सुबह की चाय के साथ
आनंद लीजिए प्रकृति का जीवन में एक नयी ऊर्जा महसूस करेंगे।

एक गीत की दो पंक्तियाँ ज़रा गुनगुनाकर सोचिये
आगे भी जाने न तू,पीछे भी जाने न तू
जो भी है बस यही एक पल है

आज की रचनाऍं-


पगडंडियाँ पहचानती हैं उसके पाँव,
झरनों की भाषा समझती है।
वो जंगल से माँगती नहीं कुछ,
बस सूखी टहनी चुनती है।

पहाड़ लाँघती है सहज भाव से,
मानो धरती उसकी सहेली हो।
थकान नहीं, करुणा चलती,
उसके कदमों की रेली हो।



जिसके होने से ही हम हैं 

एक पुलक बन तन में दौड़े, 

वही थाम लेता राहों में 

व्यर्थ कहीं जब मन यह दौड़े ! 


 होकर भी ना होना जाने 

उसके ही हैं हम दीवाने, 

 जिसे भुला के जग रोता है 

याद करें हम लिखें तराने !





ग़म-आशना हुए इस कदर की निढाल हो हो गए 

दो बरस रोते रहे इस कदर कि बदहाल हो गए 


ना दिल में सोज़, ना शब्द-सरिता में उफान 

उठाना चाहा कई बार पर उठा नहीं तूफ़ान 




कम पढ़ाई की वजह से न वो आत्मनिर्भर हो सकती थी , न पिता के घर लौट सकती थी न ही अपने पति की संभाल कर सकती थी और अगर वो जान बूझ कर उसे सताता था तो न ही उसे सुधार सकती थी ।उसके दर्द , लाचारी , बेबसी और नैराश्य से उपजे अवसाद को महसूस किया मगर अपने असहाय होने का दर्द भी महसूस किया । 



रोज़ी, रोटी और बेटी को छोड़ती जाति अब मात्र राजनीतिक पाखंड बनकर रह गयी है। इस तथ्य को यदि किसी ने बड़ी शिद्दत से महसूस किया है तो रोज़ी-रोटी और पढ़ाई-लिखाई के अवसरों की तलाश में बिहार से पलायन कर गयी वह एक बड़ी बिहारी जनसंख्या है। इस तलाश में दर-दर भटकती बिहारी जनता ने अब अपनी अस्मिता भी तलाश ली है। राष्ट्र्कवि दिनकर की इस संतति ने अब भलीभाँति इन पंक्तियों के मर्म को आत्मसात कर लिया है कि :
“जाति जाति रटते जिनकी पूँजी केवल पाखंड
मैं क्या जानूँ जाति? जाति हैं ये मेरे भुजदंड।“


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आज के लिए इतना ही
मिलते हैं अगले अंक में।
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6 टिप्‍पणियां:

  1. सुंदर अंक
    आभार
    अग्रालेख एक बार फिर पढ़ूंगा
    वंदन

    जवाब देंहटाएं
  2. सुप्रभात! बदलती हुई ऋतु की आहट वाक़ई सुनायी देने लगी है, सुबहें अब कुछ ठंडी होने लगी हैं, अभिनव रचनाओं से सजी सुंदर प्रस्तुति, आभार श्वेता जी!

    जवाब देंहटाएं
  3. बहुत सुंदर सार्थक चर्चा बहुत बहुत बधाई

    जवाब देंहटाएं
  4. सुंदर अंक की बधाई और हार्दिक आभार🙏🏼

    जवाब देंहटाएं
  5. कहा था मैने
    एकबार ऐर पढ़ूंगा
    सो इस अंक को दोबारा पढ़ा
    वंदन

    जवाब देंहटाएं

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