पर जरुरी-गैर जरूरी बहस, दैनिक जरुरतों की भाग-दौड़ के
बीच आपने महसूस किया क्या मौसम के बदलते मिज़ाज को?
चंद्रमालिका की फूटती कलियों की महक से बौराये, मंडराते
भँवरेंं और तितलियाँँ, चिड़ियों का मीठा कलरव,
मैदान। मुस्कुराती प्रकृति जो हौले से कह रही है फिजाँ बदलने वाली है पहाड़ों का मौसम वादियों में जल्दी ही उतर आयेगा। कभी सुबह की चाय के साथ
पगडंडियाँ पहचानती हैं उसके पाँव,
झरनों की भाषा समझती है।
वो जंगल से माँगती नहीं कुछ,
बस सूखी टहनी चुनती है।
पहाड़ लाँघती है सहज भाव से,
मानो धरती उसकी सहेली हो।
थकान नहीं, करुणा चलती,
उसके कदमों की रेली हो।
जिसके होने से ही हम हैं
एक पुलक बन तन में दौड़े,
वही थाम लेता राहों में
व्यर्थ कहीं जब मन यह दौड़े !
होकर भी ना होना जाने
उसके ही हैं हम दीवाने,
जिसे भुला के जग रोता है
याद करें हम लिखें तराने !
ग़म-आशना हुए इस कदर की निढाल हो हो गए
दो बरस रोते रहे इस कदर कि बदहाल हो गए
ना दिल में सोज़, ना शब्द-सरिता में उफान
उठाना चाहा कई बार पर उठा नहीं तूफ़ान





सुंदर अंक
जवाब देंहटाएंआभार
अग्रालेख एक बार फिर पढ़ूंगा
वंदन
सुप्रभात! बदलती हुई ऋतु की आहट वाक़ई सुनायी देने लगी है, सुबहें अब कुछ ठंडी होने लगी हैं, अभिनव रचनाओं से सजी सुंदर प्रस्तुति, आभार श्वेता जी!
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर सार्थक चर्चा बहुत बहुत बधाई
जवाब देंहटाएंShukriya Shweta ji 🙏🙏
जवाब देंहटाएंसुंदर अंक की बधाई और हार्दिक आभार🙏🏼
जवाब देंहटाएंकहा था मैने
जवाब देंहटाएंएकबार ऐर पढ़ूंगा
सो इस अंक को दोबारा पढ़ा
वंदन