शीर्षक पंक्ति: आदरणीया अभिलाषा चौहान जी की
रचना से।
गुरुवारीय अंक में पढ़िए पाँच रचनाएँ-
दोहे
"श्री गणेश चतुर्थी" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
हुआ चतुर्थी से शुरू, गणपति जी का पर्व।
हर्षित होते दस दिवस, सुर-नर, मुनि गन्धर्व।।
--
वन्दन-पूजन से किया, सबने विदा गणेश।
विघ्नविनाशक आप ही, सबके हो प्राणेश।।
*****
जै मयूरेश गणेश नमन वंदन : कविता रावत
मंगल मूर्ति मोरया, बुद्धि
हमें दीजिए।
मूढ़ मति लोभी हम,भक्ति
भाव नहीं दम,
क्षमा मूर्ति पाप हर,शरण
ले लीजिए।
अब जो हुआ, अब न
वो फिर होगा....
सुसुप्त सी हो चली, चेतना,
सहेजे, कौन
भला,
अब जो ढल रहा, ये पल
न रुकेगा!
*****
तो उसके भाई ने पूछा कि क्या बात है? तो लड़की ने बताया कि एक राज्य का राजा अंधे लोगों को खीर खिलाता था। लेकिन
दूध में साँप के ज़हर डालने से 100 अंधे लोग मर गए।
अब धर्मराज समझ नहीं पा रहे हैं कि अंधे लोगों की मृत्यु का पाप राजा पर हो, साँप पर या उस रसोइए पर जिसने दूध खुला छोड़ दिया।
राजा भी सुन रहा था। राजा को उससे जुड़ी कुछ
बातें सुनकर दिलचस्पी हुई और उन्होंने लड़की से पूछा कि फिर क्या फैसला हुआ?
*****
फिर मिलेंगे।
रवीन्द्र सिंह यादव
शुभ प्रभात ....
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदर प्रस्तुति ...
आ. Kavita Rawat जी की रचना अत्यंग ही सराहनीय है। बधाई एवं शुभकामनाएं
शुभ प्रभात, बहुत शानदार अंक 🙏
जवाब देंहटाएंसुंदर अंक
जवाब देंहटाएंगणेश चतुर्थी की आप सभी को हार्दिक शुभकामनाएं
जवाब देंहटाएंबेहतरीन रचना संकलन एवं प्रस्तुति सभी रचनाएं उत्तम मेरी रचना को स्थान देने के लिए सहृदय आभार आदरणीय सादर
मेरी ब्लॉग पोस्ट सम्मिलित करने हेतु आभार
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार।
जवाब देंहटाएं