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बुधवार, 20 अगस्त 2025

4486..कहाँ गए वो दिन?

 ।।प्रातःवंदन।।

शब्द के छल छद्म की मारीचिक़ा

शब्द के व्यामोह ने जग को ठगा है

शब्द अब आकार लिपि आबद्ध हैं

संचरण अनुभूतियों का खो गया है

शब्द के गुरु भार को अब कौन ढोए ?

शब्द के उस पार मन रहने लगा है।

-ड़ा मृदुल कीर्ति

शब्द की मारीचिका और कहें अनकहे को ढूंढने की कोशिशें जारी है..✍️

कहाँ गए वो दिन?


कब तलक मन को समझाएँ,

अब कहाँ वो बात रही।

ना छाँव शिवालयी बरगद की,

नरिश्तों की सौगात रही।

✨️

शुक्र है...

शुक्र है, चलो, आए तो तुम!

यूं तो, लगता था,

तृण-विहीन सा है, तेरे एहसासों का वन,

बंजर सा मन,

लताएं, उग ही न पाते हों जिन पर,

जमीं ऐसी कोई!

पर, शुक्र है, उग तो आए एहसास.

✨️

अनाश्रित - -


पुरातन अंध कुआँ सभी आवाज़ को अपने

अंदर कर जाता है समाहित, वो शब्द

जो जीवन को हर्षोल्लास दें बस

वही होते हैं प्रतिध्वनित,

दुःखद अध्याय रह

जाते हैं शैवाल

बन कर,..

✨️

दीवारों पर लिखती हुई इन स्त्रियों ने बचा रखा है संसार

आज एक च‍ित्र देखा तो सोचा आपसे शेयर करूं। देख‍िए इस च‍ित्र को और इसमें रंग भरने वाली हमारी उस पीढ़ी को जो आज के बदलावों से बेखबर अपना कर्तव्य पूरा क‍िये जा रही है।  ।।इति शम।।

धन्यवाद 

पम्मी सिंह 'तृप्ति'..✍️

4 टिप्‍पणियां:

  1. शब्द की मारीचिका और कहें अनकहे को ढूंढने की कोशिशें जारी है..✍️
    कहाँ गए वो दिन?
    इसका लिंक लगाइए

    जवाब देंहटाएं
  2. बहुत सुंदर अंक 🙏 मगर मेरी रचना "कहा गए वो दिन" का लिंक नहीं लगा है कृपया इसका लिंक लगा दीजियेगा 🙏

    जवाब देंहटाएं
  3. मेरी रचना को स्थान आज के अंक मे स्थान देने के लिए आपका तहेदिल से आभार 🙏

    जवाब देंहटाएं

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