व्यवस्थाओं के प्रति असंतोष और प्रश्न सुरूरी है?
कुछ बदलाव के बीज माटी में छिड़ककर तो देखो
उगेंगी नयी परिभाषाएँ काटेंगी बंधन मानो छुरी हैंं
प्रथाओं के मिथक टूटेगें और तय होगा एक दिन
धरती की वसीयत में किसके लिए क्या जरूरी है।
जीवन की जददोजहद के बीच
कुलबुलाहट में जी रहा होता है।
बारिश, हवा, धूप
के बावजूद
दरारों में बसती जिंदगी
खुले आकाश में जीना चाहती है।
वरना मुश्किल था पकड़ना बेईमानी आपकी.
फैंकना हर चीज़ को आसान होता है सनम,
दिल से पर तस्वीर पहले है मिटानी आपकी.
जोश में कह तो दिया पर जा कहाँ सकते थे हम,
गाँव, घर, बस्ती, शहर है राजधानी आपकी.
तिहाई का शिखर छू कर बनना तो था
शतकवीर ..,
मगर वक़्त का भरोसा कहाँ था ?
कठिन रहा यह सफ़र …,
“निन्यानवें के फेर में आकर चूक जाने की”
बातें बहुत सुनी थीं ।



%20(1).jpeg)
.png)
बहुत ही शानदार चयन के लिए बधाई आपको श्वेता जी। आभार आपका मेरी रचना का चयन करने के लिए। शेष सभी साथियों को भी खूब बधाई जिनकी रचनाएं इस अंक में शामिल की गई हैं।
जवाब देंहटाएंचिंतन परक भूमिका के साथ सुन्दर सूत्र संयोजन श्वेता जी ! मंच प्रस्तुति में सम्मिलित करने के लिए हार्दिक आभार सहित धन्यवाद ।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर सूत्रों से सुसज्जित आज की हलचल ! मेरी लघुकथा को भी आज की हलचल में स्थान देने के लिए आपका हृदय से बहुत बहुत धन्यवाद एवं आभार श्वेता जी ! सप्रेम वन्दे !
जवाब देंहटाएंकुछ बदलाव के बीज माटी में छिड़ककर तो देखो
जवाब देंहटाएंउगेंगी नयी परिभाषाएँ काटेंगी बंधन मानो छुरी हैंं
सुंदर अंक
आभार
सादर वंदन
बेहतरीन हलचल
जवाब देंहटाएंआभार मारी ग़ज़ल को जगह देने के लिए
बहुत सुंदर अंक
जवाब देंहटाएं