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गुरुवार, 3 जुलाई 2025

4438...‘बच्चों को चालू-बदमाश बनाने के लिए ये फ़िल्म दिखाने की क्या ज़रुरत है?

शीर्षक पंक्ति: आदरणीय प्रोफ़ेसर गोपेश मोहन जैसवाल जी की रचना से।

सादर अभिवादन।

गुरुवारीय अंक में पढ़िए ब्लॉगर डॉट कॉम पर प्रकाशित रचनाएँ-

प्रेम कविता | इतराता है प्रेम | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

उस पल

इतराता है प्रेम

खुद पर,

जब गुज़रता है

एक भिखारी के

हृदय से हो कर

और

पाता है

मधुर संकेत

एक भिखारिन से

*****

813. चढ़ूँगा, तभी तो पहुंचूंगा

चढ़ रहे हैं यात्री

अपनी-अपनी ट्रेनों में

पहुँच ही जाएंगे गंतव्य तक,

पुराने यात्रियों की जगह

आ गए हैं अब नए यात्री,

पर मैं वहीं खड़ा हूँ, जहां था।

 *****

प्रेम

किताब के पन्नों में

महानता का दर्जा पाकर

लेटी है

शब्दों को सिराहने लगाए

सदियों से

प्रेम के इंतजार में।

*****

अन्तर्कथा

तो आगे भी सैदव अँधेरे में रहने के लिए तैयार रहो- जाल में फँसी हजारों गौरैया-मैना की आजादी का फ़रमान जारी हो सकता था…! तुम उदाहरण बन सकती थी। लेकिन तुमने ही स्वतंत्रता और स्वच्छंदता की बारीक अन्तर को नहीं समझा।

*****

16 एम० एम० का रुपहला पर्दा

चलती का नाम गाड़ीफ़िल्म का तो नाम सुन कर ही पिताजी का पारा सातवें आसमान पर पहुँच गया था.

इस फ़िल्म को बच्चों को दिखाए जाने से साफ़ इंकार करते हुए हमारे न्यायाधीश पिताजी ने माँ से कहा था

बच्चों को चालू-बदमाश बनाने के लिए ये फ़िल्म दिखाने की क्या ज़रुरत है?

मैं उनको सीधे-सीधे पॉकेटमारी की ट्रेनिंग दिलवा देता हूँ. आए दिन मेरे कोर्ट में पॉकेटमार तो पकड़ कर लाए ही जाते हैं.

*****

फिर मिलेंगे।

रवीन्द्र सिंह यादव


4 टिप्‍पणियां:

  1. शानदार रविंद्र जी...। बहुत अच्छा अंक है...पठनीय सामग्री से सजा हुआ। बधाई आपको और सभी रचनाकार साथियों को भी खूब बधाई।

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