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मंगलवार, 15 जुलाई 2025

4450...चिराग़ तले अंधेरा

मंगलवारीय अंक में
आपसभी का स्नेहिल अभिवादन।
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रद्दी में बिकते पुस्तकों के ढेर
पायदान होते बुद्धिजीवी
विचारों के अवमूल्यन के
इस दौर में 
सोचती हूँ
पात्र हूँ या दर्शक 
मैं किस भूमिका में हूँ।

आज की रचनाएँ-


तन बदन दिन
घास मिट्टी
होंठ पर मुरली,
दो अपरिचित
कर रहे हैं
धूप की चुगली,
याद आए
अल्पनाओं से सजे कोहबर.



वहां का आसमान
अब भी है साफ
वहां के जंगल
अब भी हैं घने


कई बार बहुत कुछ 

समझने के बाद भी 

बहुत कुछ 

छूट जाता है समझ के लिए


चिराग़ तले अँधेरा है 

यह बात भला..,

चिराग़ को भी कहाँ पता होती है 





न दिशाओं का 

न गुणों का 

भावातीत, कालातीत व देशातीत  

वह बस अपने आप में स्थित है 

वह एक ही आधार है 

पर वह सदा अबदल है 




कोटि सूर्य सम प्रकाशमान
अजन्मे परमेश्वर प्रचंड अखंड
तुम हो प्रलय करने वाले
सबको आनंद भी देने वाले

सदा त्रिशूल रखते हो हाथ
हम भजते तुमको भोलेनाथ
रखना माथे सदा अपना हाथ



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आज के लिए इतना ही 
मिलते हैं अगले अंक में।

4 टिप्‍पणियां:

  1. सुन्दर सूत्रों से सुसज्जित प्रस्तुति में सम्मिलित करने के लिए बहुत-बहुत आभार एवं धन्यवाद श्वेता जी ! स्नेहिल नमस्कार!

    जवाब देंहटाएं
  2. विचारों का अवमूल्यन उन्हीं के लिए है जो अविचारी हैं, विचारवान तो कहीं से भी मोती चुन लेगा, सार्थक भूमिका और सुंदर रचनाओं का संयोजन, आभार!

    जवाब देंहटाएं
  3. आपका आभार मेरी ब्लॉग पोस्ट सम्मिलित करने हेतु,,,

    जवाब देंहटाएं

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