शीर्षक पंक्ति: आदरणीय ज्योति खरे जी की रचना से।
सादर अभिवादन।
गुरुवारीय अंक में पढ़िए आज की पसंदीदा रचनाएँ-
बरसात
कर देती है
मुरझा रहे प्रेम को
तरबतर
लेकिन हम
सहेजकर रख लेते हैं छतरी
नहीं रख पाते
सहेजकर
बरसात---
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कांच के शोकेस में सज्जित पुस्तकों में नहीं
कुछ एहसास निर्जीव से पड़े
रहते हैं अंधकार पृष्ठों के
अंदर शापित
जीवाश्म
की तरह,
लम्बी दूरी है तय करनी
सफ़र में कुछ छाँव जोड़ के रखती हूँ
छूते ही बिखर न जाऊँ कहीं
ख़ुद को ही झिंझोड़ के रखती हूँ
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उस भोलेनाथ का पाठ जाप करो जो काशीपति
विश्वनाथ कहलाते हैं
जो चन्द्र प्रकाशित किरीट धरे हैं
भाल नेत्र कंदर्प दग्ध करे हैं
जिनके कर्ण सर्प कुंडल दमक रहे हैं
जो सदा रूप ह्रास वृद्धिरहित है
उस भोलेनाथ का पाठ जाप करो
जो काशीपति विश्वनाथ कहलाते हैं
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फिर मिलेंगे।
रवीन्द्र सिंह यादव
सुंदर संकलन
जवाब देंहटाएंशामिल करने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद
जवाब देंहटाएंसुंदर
जवाब देंहटाएंकमाल का संयोजन
जवाब देंहटाएंमेरी रचना को सम्मलित करने का आभार
देर से आने के लिए खेद है, सुंदर प्रस्तुति, 'मन पाये विश्राम जहाँ' को सम्मिलित करने हेतु बहुत बहुत आभार रवींद्र जी!
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